न꣢व꣣ यो꣡ न꣢व꣣तिं꣡ पुरो꣢꣯ बि꣣भे꣡द꣢ बा꣣꣬ह्वो꣢꣯जसा । अ꣡हिं꣢ च वृत्र꣣हा꣡व꣢धीत् ॥१४५१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा । अहिं च वृत्रहावधीत् ॥१४५१॥
न꣡व꣢꣯ । यः । न꣣व꣢तिम् । पु꣡रः꣢꣯ । बि꣣भे꣡द꣢ । बा꣣ह्वो꣢जसा । बा꣣हु꣢ । ओ꣣जसा । अ꣡हि꣢꣯म् । च । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । अ꣣वधीत् ॥१४५१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में राजा वा सेनापति की शूरता का वर्णन है।
(यः) जो वीर (बाह्वोजसा) बाहुबल से (नव नवतिं पुरः) नव्वे-नव्वे शत्रु योद्धाओं के नौ व्यूहों को (बिभेद) तोड़ देता है और जो (वृत्रहा) शत्रुहन्ता वीर (अहिं च) मार-काट करनेवाले शत्रुदल को भी (अवधीत्) विध्वस्त कर देता है, वही राजा वा सेनापति बनने योग्य है ॥२॥
उसी मनुष्य को राजा के पद पर वा सेनापति के पद पर अभिषिक्त करना चाहिए, जो अकेला होता हुआ भी बहुत से शत्रुओं के छक्के छुड़ा सके ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ नृपतेः सेनापतेर्वा शौर्यं वर्णयति।
(यः) यो वीरः (बाह्वोजसा) भुजबलेन (नव नवतिं पुरः) नवतिनवतिशत्रुयोद्धॄणां नव व्यूहान् (बिभेद) भिनत्ति, यः (वृत्रहा) वृत्रहा शत्रुहन्ता वीरः (अहिं च) आहन्तारं शत्रुदलं चापि (अवधीत्) निहन्ति, स एव राजा सेनापतिर्वा भवितुमर्हति ॥२॥
स एव जनो राजपदे सेनापतिपदे वाऽभिषेच्यो य एकोऽपि सन् बहूनपि शत्रून् पराजेतुं समर्थो भवेत् ॥२॥