उ꣢꣯द्घेद꣣भि꣢ श्रु꣣ता꣡म꣢घं वृष꣣भं꣡ नर्या꣢꣯पसम् । अ꣡स्ता꣢रमेषि सूर्य ॥१४५०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उद्घेदभि श्रुतामघं वृषभं नर्यापसम् । अस्तारमेषि सूर्य ॥१४५०॥
उ꣢त् । घ꣣ । इ꣢त् । अ꣣भि꣢ । श्रु꣣ता꣡म꣢घम् । श्रु꣣त꣢ । म꣣घम् । वृषभ꣢म् । न꣡र्या꣢꣯पसम् । न꣡र्य꣢꣯ । अ꣣पसम् । अ꣡स्ता꣢꣯रम् । ए꣣षि । सूर्य ॥१४५०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १२५ क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधन की गयी थी। परमात्मा का प्रचार भी उन्नत राष्ट्र में ही हो सकता है, इसलिए यहाँ राष्ट्रोन्नति के निमित्त राजा का विषय वर्णित करते हैं।
हे (सूर्य) सूर्य के समान प्रतापी वीर ! आप (श्रुतामघम्) प्रसिद्ध धनोंवाले, (वृषभम्) बलवान् (नर्यापसम्) मनुष्यों के हितकारक कर्मों को करनेवाले, (अस्तारम्) दुःख, दुर्गुण, दुर्व्यसन आदि को परे फ़ेंक देनेवाले प्रजाजन को (घ इत्) ही (अभि) लक्ष्य करके (उदेषि) राजा रूप में राष्ट्रगगन में उदित होते हो ॥१॥
जिसके राज्य में सुयोग्य प्रजाएँ हैं, वही राजा सुयोग्य माना जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १२५ क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोधिता। अत्र परमात्मप्रचारोऽप्युन्नत एव राष्ट्रे भवितुं शक्यमिति राष्ट्रोन्नत्यर्थं नृपतिविषय उच्यते।
हे (सूर्य) सूर्य इव प्रतापिन् वीर ! त्वम् (श्रुतामघम्) प्रख्यातधनम्, (वृषभम्) नर्यापसम् नरहितकर्माणम्, (अस्तारम्) दुःखदुर्गुण- दुर्व्यसनादीनां दूरं प्रक्षेप्तारं प्रजाजनम् (घ इत्) एव (अभि) अभिलक्ष्य (उदेषि) नृपतित्वेन राष्ट्रगगने उद्गच्छसि ॥१॥
यस्य राज्ये सुयोग्याः प्रजाः सन्ति स एव राजा सुयोग्यो मन्यते ॥१॥