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अ꣣मित्रहा꣡ विच꣢꣯र्षणिः꣣ प꣡व꣢स्व सोम꣣ शं꣡ गवे꣢꣯ । दे꣣वे꣡भ्यो꣢ अनुकाम꣣कृ꣢त् ॥१४४७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अमित्रहा विचर्षणिः पवस्व सोम शं गवे । देवेभ्यो अनुकामकृत् ॥१४४७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अमित्रहा꣢ । अ꣣मित्र । हा꣢ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः । प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । श꣢म् । ग꣡वे꣢꣯ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । अनुक्राम꣣कृ꣢त् । अ꣣नुकाम । कृ꣢त् ॥१४४७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1447 | (कौथोम) 6 » 3 » 3 » 4 | (रानायाणीय) 13 » 2 » 1 » 4


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगदीश्वर ! (अमित्रहा) काम, क्रोध आलस्य आदि शत्रुओं के विनाशक, (विचर्षणिः) विशेष द्रष्टा, (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए (अनुकामकृत्) अभीष्ट सिद्ध करनेवाले आप (गवे) स्तोता के लिए (शम्) शान्तिदायक होते हुए (पवस्व) आनन्द प्रवाहित करो ॥४॥

भावार्थभाषाः -

अराधना किया गया परमेश्वर उपासक के दुःख, दुर्गुण, दुर्व्यसन आदि को विनष्ट करके उसे सद्गुण देकर उसके लिए सुख,शान्ति और दिव्य आनन्द प्रवाहित करता है ॥४॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगदीश्वर ! (अमित्रहा) कामक्रोधालस्यादिरिपूणां हन्ता, (विचर्षणिः) विद्रष्टा, (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (अनुकामकृत्) अभीष्टसम्पादकः त्वम् (गवे) स्तोत्रे। [गौः इति स्तोतृनाम। निघं० ३।१६।] (शम्) शान्तिदायकः सन् (पवस्व) आनन्दं प्रवाहय ॥४॥

भावार्थभाषाः -

आराधितः परमेश्वर उपासकस्य दुःखदुर्गुणदुर्व्यसनादीन् विनाश्य तस्मै सद्गुणान् प्रदाय सुखं शान्तिं दिव्यानन्दं च प्रवाहयति ॥४॥