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ब꣣भ्र꣢वे꣣ नु꣡ स्वत꣢꣯वसेऽरु꣣णा꣡य꣢ दिवि꣣स्पृ꣡शे꣢ । सो꣡मा꣢य गा꣣थ꣡म꣢र्चत ॥१४४४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

बभ्रवे नु स्वतवसेऽरुणाय दिविस्पृशे । सोमाय गाथमर्चत ॥१४४४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब꣣भ्र꣡वे꣢ । नु । स्व꣡त꣢꣯वसे । स्व । त꣣वसे । अरुणा꣡य꣢ । दि꣣विस्पृ꣡शे꣢ । दि꣣वि । स्पृ꣡शे꣢꣯ । सो꣡मा꣢꣯य । गा꣣थ꣢म् । अ꣣र्चत ॥१४४४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1444 | (कौथोम) 6 » 3 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 13 » 2 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को प्रेरणा दी गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मनुष्यो ! तुम (बभ्रवे) धारण-पोषण करनेवाले, (स्वतवसे)निज बलवाले, (अरुणाय) तेज से जगमगानेवाले (दिविस्पृशे) जीवात्मा में सद्गुणों का स्पर्श करानेवाले (सोमाय) रसनिधि, जगत्स्रष्टा, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के लिए (गाथम्) गाने योग्य स्तोत्र को (अर्चत) गाओ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जो अपने ही बल से, न कि दूसरे के द्वारा प्रदत्त बल से, बलवान् है, उस तेजस्वी परमात्मा की आराधना करके मनुष्य बलवान् और तेजस्वी बनें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ मानवान् प्रेरयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मनुष्याः ! यूयम् (बभ्रवे) धारणपोषणकर्त्रे, (स्वतवसे) स्वकीयबलाय, (अरुणाय) तेजसा आरोचमानाय, (दिविस्पृशे) दिवि द्योतमाने जीवात्मनि स्पर्शयति सद्गुणान् यस्तस्मै (सोमाय) रसागाराय जगत्स्रष्ट्रे सर्वान्तर्यामिने परमेश्वराय (गाथम्) गातव्यं स्तोत्रम् (अर्चत) गायत ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यः स्वकीयेनैव बलेन बलवानस्ति न तु परप्रदत्तेन, तं तेजस्विनं परमात्मानमाराध्य जना बलवन्तस्तेजस्विनो भवन्तु ॥१॥