प꣡व꣢मानो असिष्यद꣣द्र꣡क्षा꣢ꣳस्यप꣣ज꣡ङ्घ꣢नत् । प्र꣣त्नव꣢द्रो꣣च꣢य꣣न्रु꣡चः꣢ ॥१४३९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवमानो असिष्यदद्रक्षाꣳस्यपजङ्घनत् । प्रत्नवद्रोचयन्रुचः ॥१४३९॥
प꣡व꣢꣯मानः । अ꣣सिष्यदत् । र꣡क्षा꣢꣯ꣳसि । अ꣣पज꣡ङ्घ꣢नत् । अ꣣प । ज꣡ङ्घ꣢꣯नत् । प्र꣣त्नव꣢त् । रो꣣च꣡यन् । रु꣡चः꣢꣯ ॥१४३९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि उपासना किया हुआ जगदीश्वर क्या करता है।
(पवमानः) पवित्रतादायक आनन्दवर्षी जगदीश्वर (रक्षांसि) काम, क्रोध आदि रिपुओं को और पापों को (अपजङ्घनत्) नष्ट करता हुआ (प्रत्नवत्) पुरातन अग्नि के समान (रुचः) तेजों को (रोचयन्) प्रदीप्त करता हुआ (असिष्यदत्) बह रहा है ॥५॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥५॥
परमेश्वर की कृपा से उपासक के अन्तःकरण से वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं, तेज दमकते हैं और हृदय कालिमा से रहित पवित्र हो जाता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासितो जगदीश्वरः किं करोतीत्याह।
(पवमानः) पवित्रतादायकः आनन्दस्रावी जगदीश्वरः (रक्षांसि) कामक्रोधादीन् रिपून् पापानि च अपजङ्घनत् हिंसन्, (प्रत्नवत्) पुरातनाऽग्निवत्। [प्रत्नो होता वरेण्यः। ऋ० २।७।६ इत्यादिप्रामाण्याद् अग्निः प्रत्नः।] (रुचः) तेजांसि (रोचयन्) प्रदीपयन् (असिष्यदत्) प्रस्यन्दते ॥५॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥५॥
परमेश्वरकृपयोपासकस्यान्तःकरणाद् वासनाः क्षीयन्ते तेजांसि दीप्यन्ते हृदयं च निष्कलुषं पवित्रं जायते ॥५॥