प꣡व꣢स्व वृ꣣ष्टि꣢꣫मा सु नो꣣ऽपा꣢मू꣣र्मिं꣢ दि꣣व꣡स्परि꣢꣯ । अ꣣यक्ष्मा꣡ बृ꣢ह꣣ती꣡रिषः꣢꣯ ॥१४३५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व वृष्टिमा सु नोऽपामूर्मिं दिवस्परि । अयक्ष्मा बृहतीरिषः ॥१४३५॥
प꣡व꣢꣯स्व । वृ꣣ष्टि꣢म् । आ । सु । नः꣣ । अपा꣢म् । ऊ꣣र्मि꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । अ꣣यक्ष्माः꣢ । अ꣣ । यक्ष्माः꣢ । बृ꣣हतीः꣢ । इ꣡षः꣢꣯ ॥१४३५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में जगत्स्रष्टा परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।
हे सोम ! हे सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ! आप (दिवः परि) उच्च आत्मलोक से (नः) हमारे लिए (अपाम् ऊर्मिम्) दिव्य धाराओं की तरङ्गरूप (वृष्टिम्) वर्षा को (सु आ पवस्व) भली-भाँति चारों ओर से प्रवाहित करो, साथ ही (अयक्ष्माः) नीरोग अर्थात् वासना आदि से रहित (बृहतीः इषः) उच्च महत्त्वाकाञ्क्षाओं को (आ पवस्व) हमारे अन्दर उत्पन्न करो ॥१॥
जैसे जगदीश्वर अन्तरिक्ष से वर्षा तथा भूमि पर आरोग्यकारी अन्न उत्पन्न करता है, वैसे ही वह हमारे अन्दर आनन्द की वर्षा और उच्च महत्त्वाकाञ्क्षाओं को जन्म दे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ जगत्स्रष्टा परमेश्वरः प्रार्थ्यते।
हे सोम ! हे सर्वान्तर्यामिन् परमेश्वर ! त्वम् (दिवः परि) उच्चात् आत्मलोकात् (नः) अस्मभ्यम् (अपाम् ऊर्मिम्) दिव्यधाराणां तरङ्गरूपाम् (वृष्टिम्) वर्षाम् (सु आ पवस्व)सम्यक् समन्तात् प्रवाहय। किञ्च (अयक्ष्माः) नीरोगाः, वासनादिरहिताः इत्यर्थः (बृहतीः इषः) महतीः आकाङ्क्षाः (आ पवस्व) अस्मासु आस्रावय, जनयेत्यर्थः ॥१॥
यथा जगदीश्वरोऽन्तरिक्षाद् वृष्टिम् भूमावारोग्यकराण्यन्नानि चोत्पादयति तथैव सोऽस्मास्वानन्दवृष्टिमुत्कृष्टा महत्त्वाकाङ्क्षाश्च जनयेत् ॥१॥