त्व꣢꣫ꣳ हि शूरः꣣ स꣡नि꣢ता चो꣣द꣢यो꣣ म꣡नु꣢षो꣣ र꣡थ꣢म् । स꣣हा꣢वा꣣न्द꣡स्यु꣢मव्र꣣त꣢꣫मोषः꣣ पा꣢त्रं꣣ न꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ ॥१४३४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वꣳ हि शूरः सनिता चोदयो मनुषो रथम् । सहावान्दस्युमव्रतमोषः पात्रं न शोचिषा ॥१४३४॥
त्व꣢म् । हि । शू꣡रः꣢꣯ । स꣡नि꣢꣯ता । चो꣣द꣡यः꣢ । म꣡नु꣢꣯षः । र꣡थ꣢꣯म् । स꣣हा꣡वा꣢न् । द꣡स्यु꣢꣯म् । अ꣣व्रत꣢म् । अ꣢ । व्रत꣢म् । ओ꣡षः꣢꣯ । पा꣡त्र꣢꣯म् । न । शो꣣चि꣡षा꣢ ॥१४३४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमात्मा की शूरता वर्णित करते हैं।
हे इन्द्र ! हे शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाले जगदीश ! (त्वं हि) आप निश्चय ही (शूरः) शूरवीर तथा (सनिता) उत्साह देनेवाले हो। (मनुषः) मनुष्य के (रथम्) प्रगति के रथ को (चोदयः) आगे प्रेरित करते हो। (सहावान्) बलवान्, आप (अव्रतम्) व्रतहीन और कर्महीन को तथा (दस्युम्) हिंसक स्वभाव को और हिंसक मनुष्य को (शोचिषा) प्रदीप्त अग्निज्वाला से (पात्रं न) मिट्टी के घड़े आदि के समान (ओषः) संतप्त कर देते हो ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
जो परमेश्वर सज्जनों को पुरस्कार और दुष्टों को दण्ड देता है, उससे डरकर दुर्जनों को दुष्टता छोड़ देनी चाहिए और सत्कर्मों में उत्साह दिखाना चाहिए ॥३॥ इस खण्ड में उपास्य-उपासक विषय का तथा ब्रह्मानन्द का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बारहवें अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥ बारहवाँ अध्याय समाप्त॥ षष्ठ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः शूरत्वं वर्णयति।
हे इन्द्र ! हे शत्रुविदारक जगदीश ! (त्वं हि) त्वं खलु (शूरः) वीरः, (सनिता) उत्साहप्रदश्च असि। (मनुषः) मनुष्यस्य (रथम्) प्रगतिरथम् (चोदयः) अग्रे प्रेरयसि। (सहावान्) बलवान् त्वम् (अव्रतम्) व्रतहीनं कर्महीनं च (दस्युम्) हिंसकं जनं वा (शोचिषा) प्रदीप्तयाऽग्निज्वालया (पात्रं न) मृद्घटादिकमिव (ओषः) प्रतपसि। [उष दाहे, भ्वादिः] ॥३॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
यः परमेश्वरः सज्जनान् पुरस्करोति दुष्टांश्च दण्डयति तस्माद् भीत्वा दुर्जनैर्दुष्टता परित्यक्तव्या सत्कर्मसु चोत्साहः प्रदर्शनीयः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे उपास्योपासकविषयस्य ब्रह्मानन्दस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥