उ꣣पह्वरे꣡ गि꣢री꣣णा꣡ꣳ स꣢ङ्ग꣣मे꣡ च꣢ न꣣दी꣡ना꣢म् । धि꣣या꣡ विप्रो꣢꣯ अजायत ॥१४३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उपह्वरे गिरीणाꣳ सङ्गमे च नदीनाम् । धिया विप्रो अजायत ॥१४३॥
उ꣣पह्वरे꣢ । उ꣣प । ह्वरे꣢ । गि꣣रीणाम् । स꣢ङ्गमे꣢ । स꣣म् । गमे꣢ । च꣣ । न꣡दीना꣢म् । धि꣣या꣢ । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । अजायत ॥१४३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पूर्व प्रश्न का उत्तर दिया गया है।
(गिरीणाम्) पर्वतों के (उपह्वरे) एकान्त में अथवा समीप में (नदीनां च) और नदियों के (सङ्गमे) सङ्गम-स्थल पर (धिया) ध्यान द्वारा (विप्रः) वह सर्वव्यापक और मेधावी इन्द्र परमेश्वर (अजायत) प्रकट होता है ॥९॥
तुम्हारा प्रश्न है कि वह इन्द्र परमेश्वर कहाँ है? उस पर हमारा उत्तर है—वह सर्वव्यापक है, किन्तु उसका दर्शन बाह्य आँख से होना संभव नहीं है, ध्यान द्वारा आन्तरिक चक्षु से ही वह साक्षात्कार किये जाने योग्य है और ध्यान कोलाहल-भरे वातावरण में नहीं, अपितु पर्वतों और नदियों के शान्त प्रदेश में सुगम होता है। उन्हीं ध्यानयोग्य प्रदेशों में ध्यान करनेवालों को परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। तुम्हारा दूसरा प्रश्न यह है कि कौन उसकी पूजा कर सकता है? इसका उत्तर भी पहले उत्तर में आ जाता है। निराकार, शरीर-रहित, आँख से अगोचर परमेश्वर की भी पूर्वोक्त प्रकार से ध्यान करता हुआ मनुष्य पूजा कर सकता है, उसकी मूर्ति रचकर उस पर पत्र, पुष्प, जल आदि चढ़ानेवाला उसका वास्तविक पूजक नहीं है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पूर्वप्रश्नस्योत्तरं दीयते।
(गिरीणाम्) पर्वतानाम् (उपह्वरे२) एकान्ते अन्तिके वा। रहोऽन्तिकमुपह्वरे इत्यमरः ३।१८३। (नदीनाम्) सरितां (सङ्गमे च) सङ्गमस्थले च (धिया) ध्यानेन। धी शब्दो ध्यानार्थे निरुक्ते धीराः इत्यस्य व्याख्याने प्रोक्तः—धीराः प्रज्ञानवन्तो ध्यानवन्त इति (निरु० ४।९।) (विप्रः) विशेषेण प्राति पूरयति सर्वं जगत् स्वसत्तया यः स विप्रः सर्वव्यापकः यद्वा मेधावी इन्द्राख्यः३ परमात्मा। वि पूर्वात् प्रा पूरणे धातोः आतश्चोपसर्गे।’ अ० ३।१।१३६ इति कः प्रत्ययः। विप्र इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (अजायत) आविर्भवति ॥९॥४
युष्माकं प्रश्नः क्व स इन्द्रः परमेश्वर इति। तत्रास्माकमुत्तरं स सर्वव्यापकोऽस्ति, किन्तु दर्शनं तस्य बाह्यचक्षुषा न संभवति, ध्यानद्वाराऽन्तश्चक्षुषैव स साक्षात्कर्तुं योग्योस्ति। ध्यानं च न कोलाहलपूर्णे वातावरणे, परं पर्वतानां सरितां च शान्तप्रदेशे सुगमम्। तेष्वेव ध्यानयोग्येषु प्रदेशेषु ध्यानिनां परमेश्वरसाक्षात्कारो जायते। युष्माकं द्वितीयः प्रश्नः कस्तं सपर्यतीति। तस्योत्तरमपि पूर्वस्मिन्नुत्तरे समाविष्टम्। निराकारमकायमचक्षुर्गोचरमपि तं पूर्वोक्तप्रकारेण ध्यायन् पुजयितुमर्हति जनः, न तु तन्मूर्तिं विरच्य तत्र पत्रपुष्पतोयादिसमर्पणकर्ता तस्य वास्तविकः पूजक इति ॥९॥