त्व꣡म꣢ग्ने स꣣प्र꣡था꣢ असि꣣ जु꣢ष्टो꣣ हो꣢ता꣣ व꣡रे꣢ण्यः । त्व꣡या꣢ य꣣ज्ञं꣡ वि त꣢꣯न्वते ॥१४०७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वमग्ने सप्रथा असि जुष्टो होता वरेण्यः । त्वया यज्ञं वि तन्वते ॥१४०७॥
त्वम् । अ꣣ग्ने । सप्र꣡थाः꣢ । स꣣ । प्र꣡थाः꣢꣯ । अ꣣सि । जु꣡ष्टः꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । त्व꣡या꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । वि । त꣣न्वते ॥१४०७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति की गयी है।
हे (अग्ने) अग्रनायक तेजस्वी परमात्मन् ! आप (सप्रथाः) यशस्वी, (जुष्टः) प्रिय, (होता) सुखप्रदाता और (वरेण्यः) सबसे वरण करने योग्य (असि) हो। उपासक लोग (त्वया) आपकी सहायता से (यज्ञम्) जीवन-यज्ञ को (वितन्वते) फैलाते हैं ॥३॥
मनुष्य अपने जीवनरूप यज्ञ को परम यशस्वी परमेश्वर के सहयोग से ही पूर्ण कर सकते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरं स्तौति।
हे (अग्ने) अग्रनायक तेजोमय परमात्मन् ! त्वम् (सप्रथाः) यशस्वी। [प्रथ प्रख्याने, ‘सर्वधातुभ्योऽसुन्।’ उ० ४।१९० इत्यसुन्। प्रथसा सह वर्तते इति सप्रथाः।] (जुष्टः) प्रियः [जुषी प्रीतिसेवनयोः।] (होता) सुखप्रदाता, (वरेण्यः) सर्वैः वरणीयश्च (असि) विद्यसे। उपासकाः (त्वया) त्वत्साहाय्येन (यज्ञम्) जीवनयज्ञम् (वितन्वते) विस्तारयन्ति ॥३॥२
मानवाः स्वकीयं जीवनयज्ञं परमयशसः परमेश्वरस्य सहयोगेनैव पूर्णतां नेतुं पारयन्ति ॥३॥