उ꣡प꣢ त्वाग्ने दि꣣वे꣡दि꣢वे꣣ दो꣡षा꣢वस्तर्धि꣣या꣢ व꣣य꣢म् । न꣢मो꣣ भ꣡र꣢न्त꣣ ए꣡म꣢सि ॥१४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ॥१४॥
उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । अग्ने । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे । दो꣡षा꣢꣯वस्तः । दो꣡षा꣢꣯ । व꣣स्तः । धिया꣢ । व꣣य꣢म् । न꣡मः꣢꣯ । भ꣡र꣢꣯न्तः । आ । इ꣣मसि ॥१४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा को नमस्कार करते हैं।
हे (दोषावस्तः) मोह-रात्रि को निवारण करनेवाले (अग्ने) प्रकाशमय परमात्मन् ! (वयम्) हम उपासक लोग (दिवे दिवे) प्रत्येक ज्ञानप्रकाश के लिए (धिया) ध्यान, बुद्धि और कर्म के साथ (नमः) नम्रता को (भरन्तः) धारण करते हुए (त्वा) आपकी (उप एमसि) उपासना करते हैं ॥४॥
जो लोग मोह-रात्रि से ढके हुए हैं, उन्हें अपने अन्तःकरण में अध्यात्म-ज्ञान का प्रकाश पाने के लिए नमस्कार की भेंटपूर्वक योगमार्ग का अनुसरण करके ध्यान, बुद्धि और कर्म के साथ परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं नमस्करोति।
हे (दोषावस्तः) मोहरात्रिनिवारक ! दोषेति रात्रिनामसु पठितम्। निघं० १।७। वस आच्छादने, तृच्। दोषां रात्रिं वस्ते आच्छादयति निवारयति स दोषावस्ता२। तस्य सम्बुद्धौ रूपम्। आमन्त्रितस्वरेणाद्युदात्तत्वम्। (अग्ने) प्रकाशमय परमात्मन् ! (वयम्) उपासकाः (दिवेदिवे) ज्ञानस्य प्रकाशाय। दिवुरत्र द्युत्यर्थः। (धिया) ध्यानेन प्रज्ञया कर्मणा वा। धीशब्दो ध्यानार्थको निरुक्ते प्रोक्तः (निरु० ४।९) निघण्टौ च कर्मनामसु प्रज्ञानामसु च पठितः (निघ० २।१, ३।९)। (नमः) नम्रत्वम् (भरन्तः) धारयन्तः (त्वा) त्वाम् (उप एमसि) उपास्महे। अत्र इदन्तो मसि। (अ० ७।१।४६) इति मस इदन्तत्वम् ॥४॥३
ये जना मोहनिशाच्छन्नास्तैः स्वान्तःकरणेऽध्यात्मज्ञानप्रकाशमाप्तुं नमस्कारोपहारपूर्वकं योगमार्गमनुसृत्य ध्यानेन बुद्ध्या कर्मणा च परमेश्वर उपासनीयः ॥४॥