ब्र꣡ह्म꣢ प्र꣣जा꣢व꣣दा꣡ भ꣢र꣣ जा꣡त꣢वेदो꣣ वि꣡च꣢र्षणे । अ꣢ग्ने꣣ य꣢द्दी꣣द꣡य꣢द्दि꣣वि꣢ ॥१३९८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)ब्रह्म प्रजावदा भर जातवेदो विचर्षणे । अग्ने यद्दीदयद्दिवि ॥१३९८॥
ब्र꣡ह्म꣢꣯ । प्र꣣जा꣡व꣢त् । प्र꣡ । जा꣡व꣢꣯त् । आ । भ꣣र । जा꣡त꣢꣯वेदः । जा꣡त꣢꣯ । वे꣡दः । वि꣡च꣢꣯र्षणे । वि । च꣣र्षणे । अ꣡ग्ने꣢꣯ । यत् । दी꣣द꣡य꣢त् । दि꣣वि꣢ ॥१३९८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में भी आचार्य का ही विषय है।
हे (विचर्षणे) शिष्यों का हित-अहित देखनेवाले, (जातवेदः) उत्पन्न पदार्थों वा विद्याओं के ज्ञाता (अग्ने) आचार्यवर ! आप, (प्रजावत्) उत्पन्न सृष्टि के विज्ञान से युक्त (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान को (आभर) हमें प्रदान करो, (यत्) जो (दिवि) हमारे तेजस्वी आत्मा में (दीदयत्) चमके ॥३॥
गुरु लोग विद्यार्थियों को सृष्टिविज्ञान, पदार्थविज्ञान, भूगोल-खगोल आदि के विज्ञान और शिल्पविज्ञान के साथ ब्रह्मविज्ञान भी सिखाएँ ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरप्याचार्यविषयो वर्ण्यते।
हे (विचर्षणे) शिष्याणां हिताहितयोर्द्रष्टः, (जातवेदः) उत्पन्नानां पदार्थानां विद्यानां वा वेत्तः (अग्ने) आचार्यवर ! त्वम् (प्रजावत्)उत्पन्नसृष्टिविज्ञानसहितम् (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञानम् (आभर) अस्मभ्यम् आहर, प्रदेहि, (यत् दिवि) द्योतनात्मके अस्माकमात्मनि (दीदयत्) दीप्येत ॥३॥२
गुरवो विद्यार्थिनः सृष्टिविज्ञानेन पदार्थविज्ञानेन भूगोलखगोलादिविज्ञानेन शिल्पविज्ञानेन च सह ब्रह्मविज्ञानमपि शिक्षयेयुः ॥३॥