आ꣡ सो꣢ता꣣ प꣡रि꣢ षिञ्च꣣ता꣢श्वं꣣ न꣡ स्तोम꣢꣯म꣣प्तु꣡र꣢ꣳ रज꣣स्तु꣡र꣢म् । व꣣नप्रक्ष꣡मु꣢द꣣प्रु꣡त꣢म् ॥१३९४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ सोता परि षिञ्चताश्वं न स्तोममप्तुरꣳ रजस्तुरम् । वनप्रक्षमुदप्रुतम् ॥१३९४॥
आ꣢ । सो꣣त । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣ञ्चत । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । स्तो꣡म꣢꣯म् । अ꣣प्तु꣡र꣢म् । र꣣जस्तु꣡र꣢म् । व꣣नप्रक्ष꣢म् । व꣣न । प्रक्ष꣢म् । उ꣣दप्रु꣡त꣢म् । उ꣣द । प्रु꣡त꣢꣯म् ॥१३९४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५८० क्रमाङ्क पर परमेश्वर की आराधना के विषय में की गयी थी। यहाँ ब्रह्मानन्द का विषय वर्णित करते हैं।
हे मनुष्यो ! तुम (स्तोमम्) स्तुति करने योग्य, (अप्तुरम्) प्राणों में गति देनेवाले, (रजस्तुरम्) पृथिवी, सूर्य आदि लोकों को गति देनेवाले, (वनप्रक्षम्) जंगलों को वर्षा-जल से सींचनेवाले, (उदप्रुतम्) जलों को बहानेवाले सोम-नामक परमात्मा को (आ सोत) दुहो अर्थात् उससे आनन्द-रस प्राप्त करो और उसे (अश्वं न) बादल के समान (परि सिञ्चत) चारों ओर बरसाओ ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे बादल भूमि को जल से सींचता है, वैसे ही उपासकों को चाहिए कि ब्रह्मानन्द से अपने तथा दूसरों के आत्मा को पुनः-पुनः सींचें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५८० क्रमाङ्के परमेश्वराराधनविषये व्याख्याता। अत्र ब्रह्मानन्दविषयो वर्ण्यते।
हे मनुष्याः ! यूयम् (स्तोमम्) स्तोतव्यम्, (अप्तुरम्) प्राणेषु गतिप्रदातारम्, (रजस्तुरम्) पृथिवीसूर्यादिलोकेषु गतिप्रदातारम्, (अनप्रक्षम्) अरण्यानां वृष्टिजलेन सेक्तारम्, (उदप्रुतम्) उदकानां प्रवाहयितारं सोमं परमात्मानम् (आ सोत) आनन्दरसं आक्षारयत, तं च (अश्वं न) पर्जन्यमिव२ (परिसिञ्चत) परिवर्षत ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
यथा पर्जन्यो भूमिं पयसा सिञ्चति तथैवोपासकैर्ब्रह्मानन्देन स्वात्मा परेषां चात्मा मुहुर्मुहुः सेचनीयः ॥१॥