आ꣢ त्वा꣣ र꣡थे꣢ हिर꣣ण्य꣢ये꣣ ह꣡री꣢ म꣣यू꣡र꣢शेप्या । शि꣣तिपृष्ठा꣡ व꣢हतां꣣ म꣢ध्वो꣣ अ꣡न्ध꣢सो वि꣣व꣡क्ष꣢णस्य पी꣣त꣡ये꣢ ॥१३९२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या । शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥१३९२॥
आ꣢ । त्वा꣣ । र꣡थे꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡ये꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । म꣣यू꣡र꣢शेप्या । म꣣यू꣡र꣢ । शे꣣प्या । शितिपृष्ठा꣢ । शि꣣ति । पृष्ठा꣢ । व꣣हताम् । म꣡ध्वः꣢꣯ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । वि꣣व꣡क्ष꣢णस्य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥१३९२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपासक को सम्बोधन किया गया है।
हे उपासक ! (हिरण्यये) सुनहरे (रथे) रथ में (मयूरशेप्या) मोर के रंग के अर्थात् हरे-काले रंग के और (शितिपृष्ठाः) श्वेत पीठवाले (हरी) उत्कृष्ट घोड़े (त्वा) तुझे (विवक्षणस्य) जगत् के भार को वहन करनेवाले जगदीश्वर के (मध्वः) मधुर (अन्धसः) आनन्द-रस के (पीतये) पान के लिए (आ वहताम्) सार्वजनिक उपासना-गृह में पहुँचाएँ ॥२॥
उपासक लोग रथ में श्रेष्ठ घोड़ों को जोतकर उपासना-भवन में जाकर परमेश्वर की उपासना करके आनन्द प्राप्त करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासकः सम्बोध्यते।
हे उपासक ! (हिरण्यये) सुवर्णवज्ज्योतिर्मये (रथे) स्यन्दने (मयूरशेप्या) मयूरशेप्यौ मयूरवर्णौ, हरिताभकृष्णवर्णौ इत्यर्थः (शितिपृष्ठा) शितिपृष्ठौ श्वेतपृष्ठौ (हरी) प्रशस्तौ अश्वौ (त्वा) त्वाम् (विवक्षणस्य) जगद्भारवोढुः इन्द्रस्य जगदीश्वरस्य। [अहेः सन्नन्तस्य कर्तरि ल्युटि रूपम्।] (मध्वः) मधुरस्य (अन्धसः) आनन्दरसस्य (पीतये) पानाय (आ वहताम्) सार्वजनिकम् उपासनागृहं प्रापयताम् ॥२॥
उपासकजनाः रथे श्रेष्ठौ तुरगौ नियुज्योपासनागृहं गत्वा परमेश्वरमुपास्यानन्दं प्राप्नुवन्तु ॥२॥