प्र꣡ सु꣢न्वा꣣ना꣡यान्ध꣢꣯सो꣣ म꣢र्तो꣣ न꣡ व꣢ष्ट꣣ त꣡द्वचः꣢꣯ । अ꣢प꣣ श्वा꣡न꣢मरा꣣ध꣡स꣢ꣳ ह꣣ता꣢ म꣣खं꣡ न भृग꣢꣯वः ॥१३८६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः । अप श्वानमराधसꣳ हता मखं न भृगवः ॥१३८६॥
प्र꣢ । सु꣣न्वाना꣡य꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡र्तः꣢꣯ । न । व꣣ष्ट । त꣢त् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । श्वा꣡न꣢꣯म् । अ꣣राध꣡स꣢म् । अ꣣ । राध꣡स꣢म् । ह꣣त꣢ । म꣣ख꣢म् । न । भृ꣡ग꣢꣯वः ॥१३८६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५५३ क्रमाङ्क पर और उत्तरार्चिक में ७७४ क्रमाङ्क में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ उससे भिन्न व्याख्या प्रस्तुत है।
(अन्धसः) ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस को (सुन्वानाय) अपने आत्मा के अन्दर प्रस्रुत करनेवाले मनुष्य के लिए (प्र) प्रशंसात्मक वचन कहो, (मर्तः) उससे भिन्न साधारण मनुष्य (तत् वचः) उस प्रशंसात्मक वचन का (न वष्ट) अधिकारी नहीं है। हे राज्याधिकारियो ! तुम (अराधसम्) परमेश्वर की आराधना न करनेवाले, (श्वानम्) श्वान के समान लोभ आदि में आसक्त, केवल पेट भरने में लगे हुए मनुष्य को (अपहत) विनष्ट कर दो, (भृगवः) सूर्य-किरणें (मखं न) जैसे व्याप्त अन्धकार को विनष्ट करती हैं ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
राज्याधिकारियों को चाहिए कि जो न परमेश्वर की आराधना करता है, न दीन जनों की सेवा करता है, केवल स्वार्थ-साधन में लगा हुआ पशुओं से भी अधिक निकृष्ट जीवन बिताता है, उसे यथायोग्य दण्डित करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५५३ क्रमाङ्के उत्तरार्चिके च ७७४ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र प्रकारान्तरेण व्याख्यायते।
(अन्धसः) ब्रह्मानन्दरूपस्य सोमरसस्य (सुन्वानाय) स्वात्मनि प्रक्षारयित्रे जनाय (प्र) प्रकृष्टं प्रशंसात्मकं वचः प्रोच्चारयत, (मर्तः) तद्भिन्नः साधारणो मर्त्यः (तत् वचः) तत् प्रशंसात्मकं वचनं (न वष्ट) प्राप्तुं न कामयते, तत् प्राप्तुं नाधिकारी भवतीत्यर्थः। हे राज्याधिकारिणः ! यूयम् (अराधसम्) परमेश्वरम् अनाराधयन्तम् (श्वानम्) श्वसदृशं लोभादिसक्तं केवलम् उदरम्भरिम् जनम् (अप हत) विनाशयत, (भृगवः) सूर्यरश्मयः (मखं न) यथा व्याप्तम् अन्धकारं विनाशयन्ति तद्वत्। [मख गत्यर्थः, भ्वादिः] ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
यो न परमेश्वरमाराध्नोति न दीनान् जनान् परिचरति, केवलं स्वार्थसाधनपरः पशुभ्योऽपि निकृष्टतरं जीवनं यापयति स राज्याधिकारिभिर्यथायोग्यं दण्डनीयः ॥१॥