उ꣣पप्रय꣡न्तो꣢ अध्व꣣रं꣡ मन्त्रं꣢꣯ वोचेमा꣣ग्न꣡ये꣢ । आ꣣रे꣢ अ꣣स्मे꣡ च꣢ शृण्व꣣ते꣢ ॥१३७९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये । आरे अस्मे च शृण्वते ॥१३७९॥
उ꣣पप्रय꣡न्तः꣢ । उ꣣प । प्रय꣡न्तः꣢ । अ꣣ध्वर꣢म् । म꣡न्त्र꣢꣯म् । वो꣣चेम । अग्न꣡ये꣢ । आ꣣रे꣢ । अ꣢स्मे꣡इति꣢ । च꣣ । शृण्वते꣢ ॥१३७९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में परमेश्वरोपासना का विषय कहते हैं।
(अध्वरम्) हिंसारहित ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ में (उपप्रयन्तः) जाते हुए हम (आरे) दूर (अस्मे च) और हमारे समीप (शृण्वते) प्रार्थना-वचनों को सुननेवाले (अग्नये) अग्रनायक जगदीश्वर के लिए (मन्त्रम्) वेदमन्त्र को (वोचेम) उच्चारण करें ॥१॥
ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ करते हुए मनुष्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों का ध्यान किया करें और उससे शिक्षा-ग्रहण किया करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरोपासनाविषयमाह।
(अध्वरम्) हिंसारहितं ब्रह्मयज्ञं देवयज्ञं वा (उप प्रयन्तः) उपगच्छन्तः वयम् (आरे) दूरे। [आरे इति दूरनाम। निघं० ३।२६।] (अस्मे च) अस्माकं समीपे च, (शृण्वते) प्रार्थनावचांसि आकर्णयते (अग्नये) अग्रनायकाय जगदीश्वराय (मन्त्रम्) वेदमन्त्रम् (वोचेम२) उच्चारेयम ॥१॥३
ब्रह्मयज्ञं देवयज्ञं वा कुर्वन्तो जना मन्त्रोच्चारणपूर्वकं परमेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावान् ध्यायेयुस्ततः शिक्षां च गृह्णीयुः ॥१॥