अ꣣न्त꣡श्च꣢रति रोच꣣ना꣢꣫स्य प्रा꣣णा꣡द꣢पान꣣ती꣢ । व्य꣢꣯ख्यन्महि꣣षो꣡ दिव꣢꣯म् ॥१३७७
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती । व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥१३७७
अ꣣न्त꣡रिति꣢ । च꣣रति । रोचना꣢ । अ꣣स्य꣢ । प्रा꣣णा꣢त् । प्र꣣ । आना꣢त् । अ꣣पानती꣢ । अ꣣प । अनती꣢ । वि । अ꣣ख्यत् । महिषः꣢ । दि꣡व꣢꣯म् ॥१३७७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीय ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ६३१ क्रमाङ्क पर सूर्य और परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ प्राणरूप सूर्य का वर्णन करते हैं।
(अस्य) इस प्राणरूप सूर्य की (रोचना) दीप्ति अर्थात् प्रभावशक्ति (प्राणाद् अपानती) प्राणन-क्रिया के पश्चात् अपान की क्रिया करती हुई (अन्तः) शरीर के अन्दर (चरति) विचरण करती है। (महिषः) महान् प्राण (दिवम्) शरीर के मूर्धा को भी (व्यख्यत्) प्रकाशित करता है ॥२॥
जैसे बाह्य सौर जगत् में सूर्य ग्रह-उपग्रहों को धारण करता है,वैसे ही मानव- शरीर में जीवात्मासहित प्राण, मन, बुद्धि,मस्तिष्क, इन्द्रियों आदि को धारण करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ६३१ क्रमाङ्के सूर्यस्य परमात्मनश्च विषये व्याख्याता। अत्र प्राणरूपं सूर्यं वर्णयति।
(अस्य) प्राणात्मनः सूर्यस्य (रोचना) दीप्तिः प्रभावशक्तिरिति यावत् (प्राणाद् अपानती) प्राणनक्रियोत्तरम् अपानक्रियां कुर्वती (अन्तः) शरीराभ्यन्तरे (चरति) विचरति। (महिषः) महान् प्राणः (दिवम्) देहस्थं मूर्धानमपि (व्यख्यत्) प्रकाशयति ॥२॥२
यथा बाह्ये सौरजगति सूर्यो ग्रहोपग्रहान् धारयति, तथैव मानवदेहे जीवात्मना सहचरितः प्राणमनोबुद्धिमस्तिष्केन्द्रियादीनि धारयति ॥२॥