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त꣢म꣣ग्नि꣢꣫मस्ते꣣ व꣡स꣢वो꣣꣬ न्यृ꣢꣯ण्वन्त्सुप्रति꣣च꣢क्ष꣣म꣡व꣢से꣣ कु꣡त꣢श्चित् । द꣣क्षा꣢य्यो꣣ यो꣢꣫ दम꣣ आ꣢स꣣ नि꣡त्यः꣢ ॥१३७४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तमग्निमस्ते वसवो न्यृण्वन्त्सुप्रतिचक्षमवसे कुतश्चित् । दक्षाय्यो यो दम आस नित्यः ॥१३७४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम् । अ꣣ग्नि꣢म् । अ꣡स्ते꣢꣯ । व꣡स꣢꣯वः । नि । ऋ꣣ण्वन् । सुप्रतिच꣡क्ष꣢म् । सु꣣ । प्रतिच꣡क्ष꣢म् । अ꣡व꣢꣯से । कु꣡तः꣢꣯ । चि꣣त् । दक्षा꣡य्यः꣢ । यः । द꣡मे꣢꣯ । आ꣡स꣢꣯ । नि꣡त्यः꣢꣯ ॥१३७४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1374 | (कौथोम) 6 » 1 » 10 » 2 | (रानायाणीय) 11 » 3 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर जीवात्मा और बिजली का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। (वसवः) अपने अन्दर श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभावों को निवास करानेवाले मोक्ष पथ के पथिक लोग (कुतश्चित्) जहाँ कहीं से भी (अवसे) शत्रु से अपनी रक्षा के लिए (तम्) उस (सुप्रतिचक्षम्) श्रेष्ठ द्रष्टा (अग्निम्) जीवात्मा को (अस्ते) मोक्ष-धाम में (न्यृण्वन्) भेजते हैं, (यः) जो (दक्षाय्यः) बल बढ़ानेवाला, (नित्यः) नित्य, अविनाशी जीवात्मा, मुक्ति से पूर्व (दमे) शरीररूप घर में (आस) था ॥ द्वितीय—बिजली के पक्ष में। (वसवः) विद्युत्-विद्या में निवास किये हुए शिल्पी लोग (कुतश्चित्) किसी भी भय से (अवसे) रक्षा के लिए (तम्) उस (सुप्रतिचक्षम्) शुभ प्रकाश करनेवाले (अग्निम्) बिजलीरूप अग्नि को (अस्ते) प्रत्येक निवासगृह में (न्यृण्वन्) पहुँचाते हैं, (यः) जो (दक्षाय्यः) बलवान्, (नित्यः) नित्य, बिजली रूप अग्नि (दमे) कारखाने में (आस) था ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

राष्ट्र में जैसे प्रजाजनों को अभ्युदय और निःश्रेयस का पथिक होना चाहिए, वैसे ही शिल्पियों को चाहिए कि बिजली पैदा करके प्रकाश के लिए और यन्त्र आदि को चलाने के लिए तारों द्वारा उसे घर-घर में लगा दें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्जीवात्मविद्युतोर्विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—जीवात्मपरः। (वसवः) स्वेषु सद्गुणकर्मस्वभावानां निवासकाः मोक्षपथपथिकाः जनाः (कुतश्चित्) यतः कुतोऽपि (अवसे) शत्रोः स्वात्मनो रक्षणाय (तम् सुप्रतिचक्षम्) सम्यग् द्रष्टारम् (अग्निम्) जीवात्मानम् (अस्ते) मोक्षधाम्नि। [अस्तमिति गृहनाम। निघं० ३।४।] (न्यृण्वन्) प्रेषयन्ति। [ऋणोतिर्गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (यः दक्षाय्यः) बलवर्द्धकः। [दक्षयति वर्द्धयति यः सः दक्षाय्यः। श्रुदक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः। उ० ३।९६ इति दक्षतेः आय्यप्रत्ययः।] (नित्यः) अविनश्वरो जीवात्मा (दमे) देहगृहे। [दम इति गृहनाम। निघं० ३।४।] (आस२) बभूव ॥ द्वितीयः—विद्युत्परः। (वसवः) विद्युद्विद्यायां कृतनिवासाः शिल्पिनः (कुतश्चित्) कुतोऽपि भयहेतोः (अवसे) रक्षणाय (तम् सुप्रतिचक्षम्) सुप्रकाशकरम् (अग्निम्) विद्युद्रूपम् (अस्ते) निवासगृहे। [जातावेकवचनम्, गृहे गृहे इत्यर्थः।] (न्यृण्वन्) प्रेषयन्ति, (यः दक्षाय्यः) बलवान् (नित्यः) अक्षयः विद्युदग्निः (दमे) उत्पादनगृहे (आस) बभूव ॥२॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

राष्ट्रे यथा प्रजाजना अभ्युदयनिःश्रेयसयोः पथिकाः स्युस्तथैव शिल्पिनो विद्युतमुत्पाद्य प्रकाशनार्थं यन्त्रादिचालनार्थं च तारद्वारा गृहे गृहे संयोजयन्तु ॥२॥