इ꣡न्द्र꣢स्ते सोम सु꣣त꣡स्य꣢ पेया꣣त्क्र꣢त्वे꣣ द꣡क्षा꣢य꣣ वि꣡श्वे꣢ च दे꣣वाः꣢ ॥१३६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रस्ते सोम सुतस्य पेयात्क्रत्वे दक्षाय विश्वे च देवाः ॥१३६९॥
इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ते꣣ । सोम । सुत꣡स्य꣢ । पे꣣यात् । क्र꣡त्वे꣢꣯ । द꣡क्षा꣢꣯य । वि꣡श्वे꣢꣯ । च꣣ । देवाः꣢ ॥१३६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय में कहा गया है।
हे (सोम) ब्रह्मानन्द रस ! (सुतस्य) परमात्मा के पास से प्रवाहित हुए (ते) तुझे (क्रत्वे) कर्म करने के लिए और (बलाय) बल की प्राप्ति के लिए (इन्द्रः) जीवात्मा (पेयात्) पान करे, (विश्वे च देवाः) और अन्य सब प्रकाशक मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ आदि भी पान करें ॥३॥
ब्रह्मानन्द-रस के पान से मनुष्य आत्मबली और कर्मयोगी होता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा और ब्रह्मानन्द का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ ग्यारहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।
हे (सोम) ब्रह्मानन्दरस ! (सुतस्य) परमात्मनः सकाशात् प्रस्रुतस्य (ते) त्वाम् (क्रत्वे) कर्मणे (दक्षाय) बलाय च (इन्द्रः) जीवात्मा (पेयात्) आस्वादयेत्, (विश्वे च देवाः) अन्ये च प्रकाशकाः मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियादयः पेयासुः आस्वादयेयुः ॥३॥
ब्रह्मानन्दरसपानेन मनुष्य आत्मबली कर्मयोगी च जायते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो ब्रह्मानन्दस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥