ए꣣वा꣡मृता꣢꣯य म꣣हे꣡ क्षया꣢꣯य꣣ स꣢ शु꣣क्रो꣡ अ꣢र्ष दि꣣व्यः꣢ पी꣣यू꣡षः꣢ ॥१३६८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एवामृताय महे क्षयाय स शुक्रो अर्ष दिव्यः पीयूषः ॥१३६८॥
ए꣣व꣢ । अ꣣मृ꣡ता꣢य । अ꣣ । मृ꣡ता꣢꣯य । म꣣हे꣢ । क्ष꣡या꣢꣯य । सः । शु꣣क्रः꣢ । अ꣣र्ष । दिव्यः꣢ । पी꣣यू꣡षः꣢ ॥१३६८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः ब्रह्मानन्द का विषय है।
हे सोम ! हे ब्रह्मानन्द ! (सः) वह (शुक्रः) पवित्र, (दिव्यः) अलौकिक, (पीयूषः) पान करने योग्य तू (एव) सचमुच (अमृताय) हमारी अमरपद की प्राप्ति के लिए और (महे) महान् (क्षयाय) निवासक धर्म, अर्थ तथा काम की प्राप्ति के लिए (अर्ष) प्रवाहित हो ॥२॥
ब्रह्मानन्द रस के पान से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध कर सकता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्ब्रह्मानन्दविषयमाह।
हे सोम ! हे ब्रह्मानन्द ! (सः) असौ (शुक्रः) पवित्रः, (दिव्यः) अलौकिकः (पीयूषः) पातुं योग्यः। [अत्र पीङ् पाने धातोः ‘पीयेरूषन्’ उ० ४।७७। इति ऊषन् प्रत्ययः।] त्वम् (एव) सत्यम् (अमृताय) अस्माकम् अमरपदलाभाय (महे) महते (क्षयाय) निवासकाय धर्मार्थकामलाभाय च (अर्ष) प्रस्रव ॥२॥
ब्रह्मानन्दरसपानेन मनुष्यो धर्मार्थकाममोक्षान् साद्धुं क्षमते ॥२॥