अ꣢नु꣣ हि꣡ त्वा꣢ सु꣣त꣡ꣳ सो꣢म꣣ म꣡दा꣢मसि महे समर्यराज्ये । वाजाँ अभि पवमान प्र गाहसे ॥१३६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अनु हि त्वा सुतꣳ सोम मदामसि महे समर्यराज्ये । वाजाँ अभि पवमान प्र गाहसे ॥१३६६॥
अ꣡नु꣢꣯ । हि । त्वा꣣ । सुत꣢म् । सो꣣म । म꣡दा꣢꣯मसि । म꣣हे꣢ । स꣣मर्यरा꣡ज्ये꣢ । स꣣मर्य । रा꣡ज्ये꣢꣯ । वा꣡जा꣢꣯न् । अ꣣भि꣢ । प꣣वमान । प꣢ । गा꣣हसे ॥१३६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में ४३२ क्रमाङ्क पर परमात्मा, जीवात्मा और राजा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ परमात्मा के विषय में व्याख्या की जा रही है।
हे (सोम) ब्रह्माण्ड के सम्राट् जगदीश्वर ! (महे) महान् (समर्यराज्ये) देवासुरसङ्ग्राम से प्राप्त आन्तरिक साम्राज्य में, हम (सुतं त्वा) हृदय में प्रकट हुए आपको (अनु) लक्ष्य करके (मदामसि हि) मुदित होते हैं। हे (पवमान) पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! आप (वाजान्) बलों में (अभि प्र गाहसे) अवगाहन करते हो, अतः हमें बल दो, यह भाव है ॥३॥
अपने अन्तरात्मा में छिपे हुए परमात्मा को प्रकट करके आत्मबल और परम आनन्द प्राप्त किया जा सकता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ४३२ क्रमाङ्के परमात्मानं जीवात्मानं राजानं च सम्बोधिता। अत्र परमात्मविषये व्याख्यायते।
हे (सोम) ब्रह्माण्डस्य सम्राट् जगदीश्वर ! (महे) महति (समर्यराज्ये) समरेण देवासुरसंग्रामेण प्राप्तं समर्यं तस्मिन् राज्ये, आन्तरे स्वराज्ये इत्यर्थः, वयम् (सुतं त्वा) हृदये प्रकटीभूतं त्वाम् (अनु) अनुलक्ष्य (मदामसि हि) मोदामहे खलु। [मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः।] हे (पवमान) पावक परमात्मन् ! त्वम् (वाजान्) बलानि, (अभि प्र गाहसे) अवगाहसे, अतोऽस्मभ्यमपि बलानि देहीति भावः ॥३॥
स्वान्तरात्मनि प्रच्छन्नं परमात्मानं प्रकटीकृत्यात्मबलं परमाह्लादकश्च प्राप्तुं शक्यते ॥३॥