मा꣡ चि꣢द꣣न्य꣡द्वि श꣢꣯ꣳसत꣣ स꣡खा꣢यो꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत । इ꣢न्द्र꣣मि꣡त्स्तो꣢ता꣣ वृ꣡ष꣢ण꣣ꣳ स꣡चा꣢ सु꣣ते꣡ मुहु꣢꣯रु꣣क्था꣡ च꣢ शꣳसत ॥१३६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मा चिदन्यद्वि शꣳसत सखायो मा रिषण्यत । इन्द्रमित्स्तोता वृषणꣳ सचा सुते मुहुरुक्था च शꣳसत ॥१३६०॥
मा꣢ । चि꣣त् । अन्य꣢त् । अ꣣न् । य꣢त् । वि । श꣣ꣳसत । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । मा꣢ । रि꣣षण्यत । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । इत् । स्तो꣣त । वृ꣡ष꣢꣯णम् । स꣡चा꣢꣯ । सु꣣ते꣢ । मु꣡हुः꣢꣯ । उ꣣क्था꣢ । च꣣ । शꣳसत ॥१३६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २४२ क्रमाङ्क पर परमेश्वर की उपासना के विषय में की जा चुकी है। यहाँ भी वही विषय वर्णित है।
हे (सखायः) साथियो ! तुम (अन्यत्) परमेश्वर के अतिरिक्त सूर्य, चाँद, वृक्ष, स्थाणु, प्रतिमा आदि को (मा चित्) कभी मत (विशंसत) पूजो, (मा रिषण्यत) अपूज्यों की पूजा से हानिग्रस्त मत होओ। (सुते) श्रद्धारस के अभिषुत होने पर (सचा) साथ मिलकर (वृषणम्) आनन्द की वर्षा करनेवाले (इन्द्रम् इत्) परमैश्वर्यशाली परमेश्वर की ही (स्तोत) स्तुति करो और (मुहुः मुहुः) बार-बार (उक्था च) स्तोत्रों का (शंसत) कीर्तन करो ॥१॥
एक सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी परमेश्वर की ही पूजा सबको करनी चाहिए। वेदों में इन्द्र, मित्र, वरुण, आदि बहुत से नामों से एक ही परमेश्वर का प्रतिपादन हुआ है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २४२ क्रमाङ्के परमेश्वरोपासनाविषये व्याख्याता। अत्रापि स एव विषय उच्यते।
हे (सखायः) सुहृदः, यूयम् (अन्यत्) परमेश्वरातिरिक्तं सूर्यचन्द्रवृक्षस्थाणुप्रतिमादिकम् (मा चित्) नैव खलु (वि शंसत) अर्चत, (मा रिषण्यत) अनर्चनीयानामर्चनेन (मा रिषण्यत) हिंसिता न भवत। (सुते) श्रद्धारसे अभिषुते सति (सचा) संभूय (वृषणम्) आनन्दवर्षकम् (इन्दुम् इत्) परमैश्वर्यशालिनं परमेश्वरमेव (स्तोत) स्तुवीध्वम्, (मुहुः) पुनः पुनः (उक्था च) उक्थानि च, स्तोत्राणीत्यर्थः (शंसत) कीर्तयत ॥१॥
एकस्य सर्वज्ञस्य सर्वान्तर्यामिनो न्यायकारिणः परमेश्वरस्यैव पूजा सर्वैर्विधेया। वेदेष्विन्द्रमित्रवरुणादिभिरनेकैर्नामभिरेक एव परमेश्वरः प्रतिपादितोऽस्ति ॥१॥