इ꣣म꣡ उ꣢ त्वा꣣ वि꣡ च꣢क्षते꣣ स꣡खा꣢य इन्द्र सो꣣मि꣡नः꣢ । पु꣣ष्टा꣡व꣢न्तो꣣ य꣡था꣢ प꣣शु꣢म् ॥१३६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इम उ त्वा वि चक्षते सखाय इन्द्र सोमिनः । पुष्टावन्तो यथा पशुम् ॥१३६॥
इ꣣मे꣢ । उ꣣ । त्वा । वि꣢ । च꣣क्षते । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । इन्द्र । सो꣡मिनः꣢ । पु꣣ष्टा꣡व꣢न्तः । य꣡था꣢꣯ । प꣣शु꣢म् ॥१३६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमात्मा के सखा लोग उसके दर्शन की प्रतीक्षा करते हैं।
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! (इमे उ) ये (सोमिनः) भक्तिरसरूप सोम को परिस्रुत किये हुए (सखायः) आपके मित्र उपासक (त्वा) आपकी (विचक्षते) प्रतीक्षा कर रहे हैं, (पुष्टावन्तः) पशुओं के खाने योग्य परिपुष्ट घास आदि से युक्त पशुपालक (यथा) जिस प्रकार (पशुम्) गाय आदि पशु की प्रतीक्षा करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे पशुओं के खाने योग्य घास आदि को तैयार किये हुए पशुपालक लोग गाय आदि पशु की प्रतीक्षा करते हैं कि वह आकर भक्ष्य को खाकर उसकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान् दूध हमें दे, वैसे ही भक्तिरूप सोमरस को तैयार किये हुए उपासक लोग परमात्मा की प्रतीक्षा करते हैं कि वह उनके हृदय- सदन में आकर भक्तिरस का पान करे और उसकी अपेक्षा हजार गुणा मूल्यवाला आनन्दरसरूप दूध हमें प्रदान करे ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः सखायः तद्दर्शनं प्रतीक्षन्त इत्याह।
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (इमे उ) एते खलु। उ इति वाक्यालङ्कारे वर्तते, यं यास्कः निरु० १।९ इत्यत्र पदपूरणः इत्याह। (सोमिनः) अभिषुतभक्तिरससोमाः (सखायः) तव सुहृदः उपासकाः (त्वा) त्वाम् (विचक्षते२) विपश्यन्ति, प्रतीक्षन्ते। विचष्टे पश्यतिकर्मा। निघं० ३।११, (पुष्टावन्तः३) पशुभक्ष्यपरिपुष्टघासादि- युक्ताः पशुपालकाः। पुष्टा इत्यत्र दीर्घश्छान्दसः। यथा येन प्रकारेण (पशुम्) गवादिकं पशुं विचक्षते प्रतीक्षन्ते ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा सज्जीकृतपशुभक्ष्ययवसादयः पशुपालका धेन्वादिकं पशुं प्रतीक्षन्ते यत् स आगत्य भक्ष्यमास्वाद्य तदपेक्षया मूल्यवत्तरं दुग्धमस्यभ्यं प्रयच्छेत्, तथैव सज्जीकृतभक्तिरूपसोमरसा उपासका जनाः परमात्मानं प्रतीक्षन्ते यत् स तेषां हृदयगृहं समागत्य भक्तिरसं पिबेत् तदपेक्षया सहस्रगुणितमूल्यमानन्दरसदुग्धं चास्मभ्यं दद्यादिति ॥२॥