त्व꣡मी꣢शिषे सु꣣ता꣢ना꣣मि꣢न्द्र꣣ त्व꣡मसु꣢꣯तानाम् । त्व꣢꣫ꣳ राजा꣣ ज꣡ना꣢नाम् ॥१३५६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वमीशिषे सुतानामिन्द्र त्वमसुतानाम् । त्वꣳ राजा जनानाम् ॥१३५६॥
त्वम् । ई꣣शिषे । सुता꣡ना꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वम् । अ꣡सु꣢꣯तानाम् । अ । सु꣣तानाम् । त्व꣢म् । रा꣡जा꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯नाम् ॥१३५६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब जीवात्मा परमात्मा की स्तुति करता है।
हे (इन्द्र) जगत् के रचयिता परमात्मन् ! (त्वम्) आप (सुतानाम्) उत्पन्न प्राणियों और पदार्थों के (ईशिषे) स्वमी हो, (त्वम्) आप ही (असुतानाम्) जो अभी उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु भविष्य में उत्पन्न होनेवाले हैं, उन प्राणियों और पदार्थों के भी स्वामी हो। (त्वम्) आप ही (जनानाम्) मनुष्यों के (राजा) राजा हो ॥३॥
जीवात्मा के अन्दर जो महान् शक्ति निहित है, वह परमात्मा की ही दी हुई है, इस कारण परमात्मा की स्तुति से यहाँ जीव अपने अभिमान को दूर कर रहा है ॥३॥ यहाँ उपास्य-उपासक का सम्बन्ध वर्णित होने से, जीवात्मा को उद्बोधन होने से और विद्वान् उपासकों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ ग्यारहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मा परमात्मानं स्तौति।
हे (इन्द्र) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (त्वम्) त्वमेव (सुतानाम्) उत्पन्नानां प्राणिनां पदार्थानां च (ईशिषे) अधीश्वरोऽसि। (त्वम्) त्वमेव (असुतानाम्) अनुत्पन्नानां भाविनां प्राणिनां पदार्थानां च ईश्वरो भविष्यसि। (त्वम्) त्वमेव (जनानाम्) मनुष्याणां (राजा) सम्राट् असि ॥३॥
जीवात्मनि या महती शक्तिर्निहिता सा परमात्मनैव प्रदत्तास्तीति परमात्मस्तुत्याऽत्र जीवः स्वाभिमानं निराकरोति ॥३॥ अत्रोपास्योपासकसम्बन्धवर्णनाद् जीवात्मोद्बोधनाद् विदुषामुपासकानां च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥ इत्येकादशेऽध्याये प्रथमः खण्डः।