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देवता: इन्द्रः ऋषि: प्रगाथः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प꣣दा꣢ प꣣णी꣡न꣢रा꣣ध꣢सो꣣ नि꣡ बा꣢धस्व म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि । न꣢꣫ हि त्वा꣣ क꣢श्च꣣ न꣡ प्रति꣢꣯ ॥१३५५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पदा पणीनराधसो नि बाधस्व महाꣳ असि । न हि त्वा कश्च न प्रति ॥१३५५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पदा꣢ । प꣣णी꣢न् । अ꣣राध꣡सः꣢ । अ꣣ । राध꣡सः꣢ । नि । बा꣣धस्व । महा꣢न् । अ꣣सि । न꣢ । हि । त्वा꣣ । कः꣢ । च꣣ । न꣢ । प्र꣡ति꣢꣯ ॥१३५५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1355 | (कौथोम) 6 » 1 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 11 » 1 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर जीवात्मा को उद्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र जीवात्मन् ! तू (अराधसः) दूसरों के कार्यों को सिद्ध न करनेवाले (पणीन्) स्वार्थभावों को (पदा) जैसे पैर की ठोकर मार कर किसी को दूर फेंक देते हैं, वैसे (नि बाधस्व) दूर फेंक दे, तू (महान्) महान् (असि) है, (त्वा) तुझे (कश्च न) कोई भी (प्रति नहि) प्रतिरुद्ध नहीं कर सकता है, अर्थात् तेरे मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकता है ॥२॥ यहाँ ‘पदा’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे कोई पैर की ठोकर मार कर मार्ग की रुकावट को दूर फेंक देता है, वैसे ही जीवात्मा को चाहिए कि विघ्नरूप आन्तरिक शत्रुओं को दूर कर दे ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्जीवात्मानमुद्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र जीवात्मन् ! त्वम् (अराधसः) परकार्याऽसाधकान् (पणीन्) स्वार्थभावान् (पदा) पादाघातेन इव (नि बाधस्व) दूरं प्रक्षिप, त्वम् (महान्) महिमोपेतः (असि) विद्यसे। (त्वा) त्वाम् (कश्चन) कोऽपि (प्रति नहि) प्रतिरोद्धुं न शक्नोति ॥२॥ अत्र पदा पादेन इव इति लुप्तोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा कश्चित् पादाघातेन मार्गप्रतिबन्धकमपसारयति तथैव जीवात्मना विघ्नभूता आभ्यन्तराः शत्रवोऽपनेयाः ॥२॥