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देवता: इन्द्रः ऋषि: प्रगाथः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣡ त्वा꣢ मन्दन्तु꣣ सो꣡माः꣢ कृणु꣣ष्व꣡ राधो꣢꣯ अद्रिवः । अ꣡व꣢ ब्रह्म꣣द्वि꣡षो꣢ जहि ॥१३५४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उ त्वा मन्दन्तु सोमाः कृणुष्व राधो अद्रिवः । अव ब्रह्मद्विषो जहि ॥१३५४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣢त् । त्वा꣣ । मन्दन्तु । सो꣡माः꣢꣯ । कृ꣣णुष्व꣢ । रा꣡धः꣢꣯ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । अ꣡व꣢꣯ । ब्र꣣ह्मद्वि꣡षः꣢ । ब्र꣣ह्म । द्वि꣡षः꣢꣯ । ज꣣हि ॥१३५४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1354 | (कौथोम) 6 » 1 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 11 » 1 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १९४ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की गयी थी। यहाँ जीवात्मा को प्रोद्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अद्रिवः) अविदारणीय बलवाले इन्द्र जीवात्मन् ! (त्वा) तुझे (सोमाः) वीर रस (मदन्तु उ) उत्साहित करें। तू (राधः) दिव्य ऐश्वर्य तथा सफलता को (कृणुष्व) उत्पन्न कर। (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मद्वेषी भावों को (अवजहि) विनष्ट कर दे ॥१॥

भावार्थभाषाः -

अपने आत्म-बल को पहचान कर मनुष्य को महान् कर्म करने चाहिएँ और विघ्नों को पराजित करना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १९४ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मा प्रोद्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अद्रिवः) अविदारणीयबल इन्द्र जीवात्मन् ! (त्वा) त्वाम् (सोमाः) वीररसाः (मदन्तु उ) उत्साहयन्तु खलु। त्वम् (राधः) दिव्यैश्वर्यं साफल्यं च (कृणुष्व) सम्पादय। (ब्रह्मद्विषः) ब्रह्मद्वेषिणो भावान् (अवजहि) विनाशय ॥१॥

भावार्थभाषाः -

स्वकीयमात्मबलं परिचित्य मनुष्येण महान्ति कार्याणि सम्पादनीयानि विघ्नाश्च पराजेयाः ॥१॥