सु꣣प्रावी꣡र꣢स्तु꣣ स꣢꣫ क्षयः꣣ प्र꣡ नु याम꣢꣯न्त्सुदानवः । ये꣡ नो꣢ अ꣡ꣳहो꣢ऽति꣣पि꣡प्र꣢ति ॥१३५२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सुप्रावीरस्तु स क्षयः प्र नु यामन्त्सुदानवः । ये नो अꣳहोऽतिपिप्रति ॥१३५२॥
सु꣣प्रावीः꣢ । सु꣣ । प्रावीः꣢ । अ꣣स्तु । सः꣢ । क्ष꣡यः꣢꣯ । प्र । नु । या꣡म꣢꣯न् । सु꣣दानवः । सु । दानवः । ये꣢ । नः꣣ । अ꣡ꣳहः꣢꣯ । अ꣣तिपि꣡प्र꣢ति । अ꣣ति । पि꣡प्र꣢꣯ति ॥१३५२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपासक विद्वान् जनों को सम्बोधन है।
हे (सुदानवः) शुभ दानवाले उपासक विद्वान् जनो ! (ये) जो आप लोग (नः) हमारे (अंहः) पाप वा अपराध को (अतिपिप्रति) दूर करते हो, उन आप लोगों के (यामन्) आगमन होने पर (सः) वह (क्षयः) हमारा निवासगृह (सुप्रावीः) भली- भाँति प्रकृष्टरूप से रक्षित (नु) शीघ्र ही (प्र अस्तु) प्रबलरूप से होवे ॥२॥
कर्तव्य और अकर्तव्य के उपदेशक उपासक विद्वान् जनों के समागम से लोग किसी भी पापकर्म में प्रवृत्त न होते हुए पुण्यशाली होते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासका विद्वांसो जनाः सम्बोध्यन्ते।
हे (सुदानवः) शोभनदानाः उपासका विद्वांसो जनाः ! (ये) ये भवन्तः (नः) अस्माकम् (अंहः) पापम् अपराधं वा (अति पिप्रति) अतिपारयन्ति, तेषां भवताम् (यामन्) यामनि आगमने, प्राप्तौ सत्याम् (सः क्षयः) सोऽस्माकं निवासः (सुप्रावीः) सम्यक् प्रकृष्टतया रक्षितः (नु) क्षिप्रम् (प्र अस्तु) प्रकर्षेण जायताम् ॥२॥
कर्तव्याकर्तव्योपदेशकानामुपासकानां विदुषां जनानां समागमेन मनुष्याः कस्मिन्नपि पापकर्मण्यप्रवर्तमानाः पुण्यशालिनो भवन्ति ॥२॥