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देवता: इन्द्रः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡ग्ने꣢ सु꣣ख꣡त꣢मे꣣ र꣡थे꣢ दे꣣वा꣡ꣳ ई꣢डि꣣त꣡ आ व꣢꣯ह । अ꣢सि꣣ हो꣢ता꣣ म꣡नु꣢र्हितः ॥१३५०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्ने सुखतमे रथे देवाꣳ ईडित आ वह । असि होता मनुर्हितः ॥१३५०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । सु꣣ख꣡त꣢मे । सु꣣ । ख꣡त꣢꣯मे । र꣡थे꣢꣯ । दे꣣वा꣢न् । ई꣣डितः꣢ । आ । व꣣ह । अ꣡सि꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । म꣡नु꣢꣯र्हितः । म꣡नुः꣢꣯ । हि꣡तः ॥१३५०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1350 | (कौथोम) 6 » 1 » 1 » 4 | (रानायाणीय) 11 » 1 » 1 » 4


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन् ! (ईडितः) पूजा किये हुए, आप (देवान्) दिव्यगुणयुक्त हम विद्वान् उपासकों को, आगामी जन्म में (सुखतमे) सबसे अधिक सुखदायी (रथे) मानवदेह-रूप रथ में (आ वह) जीवनयात्रा कराओ। आप (होता) कर्मफलों के दाता और (मनुर्हितः) मनुष्यों के लिए हितकारी (असि) हो ॥४॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर की उपासना से श्रेष्ठ कर्मों में प्रेरित हुआ मनुष्य आगामी जन्म में भी कर्मों के अनुसार मानव-योनि प्राप्त करता है ॥४॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमेश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन् ! (ईडितः) पूजितः त्वम् (देवान्) दिव्यगुणयुक्तान् (विदुषः) उपासकान् अस्मान्, भाविजन्मनि (सुखतमे) अतिशयेन सुखकारिणि (रथे) मानवदेहरूपे रथे (आ वह) जीवनयात्रां कारय। त्वम् (होता) कर्मफलानां दाता, (मनुर्हितः२) मनुषे मानवाय हितः हितकरः (असि) वर्तसे। [मनुषे हितः मनुर्हितः। अत्र ‘क्ते च’। अ० ६।२।४५ इत्यनेन पूर्वपदप्रकृतिस्वरः] ॥४॥३

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरोपासनेन सत्कर्मसु प्रेरितो मानवो भाविजन्मन्यपि कर्मानुसारं मानवयोनिं प्राप्नोति ॥४॥