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न꣢रा꣣श꣡ꣳस꣢मि꣣ह꣢ प्रि꣣य꣢म꣣स्मि꣢न्य꣣ज्ञ꣡ उप꣢꣯ ह्वये । म꣡धु꣢जिह्वꣳ हवि꣣ष्कृ꣡त꣢म् ॥१३४९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नराशꣳसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वꣳ हविष्कृतम् ॥१३४९॥
नरा꣣श꣡ꣳस꣢म् । इ꣣ह꣢ । प्रि꣣य꣢म् । अ꣣स्मि꣢न् । य꣣ज्ञे꣢ । उ꣡प꣢꣯ । ह्व꣢ये । म꣡धु꣢꣯जिह्वम् । म꣡धु꣢꣯ । जि꣣ह्वम् । हविष्कृ꣡त꣢म् । ह꣣विः । कृ꣡त꣢꣯म् ॥१३४९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर कह रहा है।
(मधुजिह्वम्) जिसकी जिह्वा में मधु है, ऐसे अर्थात् मधुरभाषी, (हविष्कृतम्) आत्मसमर्पण करनेवाले, (इह) यहाँ (प्रियम्) मेरे प्रिय, (नराशंसम्) मनुष्यों से प्रशंसनीय जीवात्मा को (अस्मिन् यज्ञे) इस पारस्परिक मिलनरूप यज्ञ में, मैं (उपह्वये) अपने समीप बुलाता हूँ ॥३॥
जीवात्मा जब आत्मसमर्पण कर देता है तब परमात्मा स्वयं ही उसे अपने समीप ले आता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरो ब्रूते।
(मधुजिह्वम्) मधुरभाषिणम्, (हविष्कृतम्) हविः आत्मसमर्पणं करोतीति तम्, (इह) अत्र (प्रियम्) मम प्रीतिपात्रम् (नराशंसम्) नरैः प्रशंसनीयं जीवात्मानम् (अस्मिन् यज्ञे) एतस्मिन् पारस्परिकसंगमयज्ञे, अहम् (उपह्वये) स्वसमीपम् आह्वयामि ॥३॥२
जीवात्मनाऽऽत्मसमर्पणे कृते सति परमात्मा स्वयमेव तं स्वान्तिके समानयति ॥३॥
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