सु꣡ष꣢मिद्धो न꣣ आ꣡ व꣢ह दे꣣वा꣡ꣳ अ꣢ग्ने ह꣣वि꣡ष्म꣢ते । हो꣡तः꣢ पावक꣣ य꣡क्षि꣢ च ॥१३४७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सुषमिद्धो न आ वह देवाꣳ अग्ने हविष्मते । होतः पावक यक्षि च ॥१३४७॥
सु꣡ष꣢꣯मिद्धः । सु । स꣣मिद्धः । नः । आ꣢ । व꣣ह । देवा꣢न् । अ꣣ग्ने । हवि꣡ष्म꣢ते । होत꣣रि꣡ति꣢ । पा꣣वक । य꣡क्षि꣢꣯ । च꣣ ॥१३४७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हे (अग्ने) अग्रणायक तेजस्वी परमेश्वर ! (सुसमिद्धः) अन्तरात्मा में भली भाँति प्रदीप्त किये हुए आप (नः) हम उपासकों के लिए और (हविष्मते) दूसरे आत्मसमर्पणकर्ता के लिए (देवान्) दिव्यगुणों को (आ वह) प्राप्त कराओ। (होतः) हे सुख-प्रदाता ! (पावक) हे पवित्रकर्ता, आप (यक्षि च) हमारे साथ सङ्गम भी करो ॥१॥
अपने अन्तरात्मा में परमात्माग्नि को प्रदीप्त करके सब लोग दिव्यगुणी होवें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (अग्ने) अग्रनायक तेजस्विन् विश्वेश्वर ! (सुसमिद्धः) अन्तरात्मनि सम्यक् प्रदीपितः त्वम् (नः) अस्मभ्यम् उपासकेभ्यः (हविष्मते) अन्यस्मै आत्मसमर्पकाय च (देवान्) दिव्यगुणान् (आ वह) प्रापय। (होतः) हे सुखप्रदातः ! (पावक) हे पवित्रकर्तः ! त्वम् (यक्षि२ च) अस्माभिः संगच्छस्व च। [यक्षि यज इति निरुक्तम् ६।१३] ॥१॥३
स्वान्तरात्मनि परमात्माग्निं प्रदीप्य जना दिव्यगुणयुक्ता जायन्ताम् ॥१॥