अ꣡यु꣢द्ध꣣ इ꣢द्यु꣣धा꣢꣫ वृत꣣ꣳ शू꣢र꣣ आ꣡ज꣢ति꣣ स꣡त्व꣢भिः । ये꣢षा꣣मि꣢न्द्रो꣣ यु꣢वा꣣ स꣡खा꣢ ॥१३४०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अयुद्ध इद्युधा वृतꣳ शूर आजति सत्वभिः । येषामिन्द्रो युवा सखा ॥१३४०॥
अ꣡यु꣢꣯द्ध । अ । यु꣣द्ध । इ꣢त् । यु꣣धा꣢ । वृ꣡त꣢꣯म् । शू꣡रः꣢꣯ । आ । अ꣣जति । स꣡त्व꣢꣯भिः । ये꣡षा꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । यु꣡वा꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ ॥१३४०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में भी उसी विषय का वर्णन है।
(येषाम्) जिन लोगों का (युवा) युवा (इन्द्रः) वीर परमेश्वर वा वीर राजा (सखा) सहायक हो जाता है, उनका (शूरः) शूर जीवात्मा वा शूर सेनापति (अयुद्धः इत्) स्वयं दूसरों से युद्ध न किये जा सकनेवाला होकर (युधा) देवासुरसङ्ग्राम से (वृतम्) घिरे हुए काम-क्रोध आदि षड् रिपुवर्ग को वा मानव-शत्रुदल को (सत्वभिः) अपने पराक्रमों से (आ अजति) मार कर दूर फेंक देता है ॥३॥
जैसे जगदीश्वर को सखा वरण करके योगसाधक लोग योगमार्ग में आये हुए सब विघ्नों का निवारण कर देते हैं, वैसे ही वीर मनुष्य को राजा वा सेनापति के पद पर अभिषिक्त करके प्रजाजन सब शत्रुओं को विनष्ट कर देते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयं वर्णयति।
(येषाम्) जनानाम् (युवा) तरुणः (इन्द्रः) वीरः परमेश्वरो वीरो राजा वा (सखा) सहायको जायते, तेषाम् (शूरः) विक्रान्तो जीवात्मा सेनापतिर्वा (अयुद्धः इत्) स्वयं परैर्योद्धुमशक्य एव (युधा) देवासुरसंग्रामे (वृतम्) परिवृतं कामक्रोधादिकं षड्रिपुवर्गं मानवं शत्रुदलं वा (सत्वभिः) आत्मीयैः पराक्रमैः (आ अजति) आहत्य दूरं प्रक्षिपति। [अज गतिक्षेपणयोः, भ्वादिः] ॥३॥
यथा जगदीश्वरं सखायं वृत्वा योगसाधका जना योगमार्गे समागतान् सर्वान् विघ्नान् निवारयन्ति तथैव वीरं जनं राजपदे सेनापतिपदे चाभिषिच्य प्रजाजनाः सर्वान् शत्रून् विघ्नन्ति ॥३॥