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देवता: इन्द्रः ऋषि: त्रिशोकः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

आ꣢ घा꣣ ये꣢ अ꣣ग्नि꣢मि꣣न्ध꣡ते꣢ स्तृ꣣ण꣡न्ति꣢ ब꣣र्हि꣡रा꣢नु꣣ष꣢क् । ये꣢षा꣣मि꣢न्द्रो꣣ यु꣢वा꣣ स꣡खा꣢ ॥१३३८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ घा ये अग्निमिन्धते स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् । येषामिन्द्रो युवा सखा ॥१३३८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । घ꣣ । ये꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्ध꣡ते꣢ । स्तृ꣣ण꣡न्ति꣢ । ब꣣र्हिः꣢ । अ꣣नुष꣢क् । अ꣣नु । स꣢क् । ये꣡षा꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । यु꣡वा꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ ॥१३३८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1338 | (कौथोम) 5 » 2 » 21 » 1 | (रानायाणीय) 10 » 12 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १३३ क्रमाङ्क पर अध्यात्म पक्ष में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ अध्यात्म विषय और राष्ट्र का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(येषाम्) जिन उपासकों का वा प्रजाजनों का (युवा) युवक (इन्द्रः) वीर परमेश्वर वा वीर राजा (सखा) सहायक हो जाता है और (ये घ) जो (अग्निम्) ईश्वर-भक्ति वा राष्ट्र-भक्ति की अग्नि को (आ इन्धते) अपने अन्तःकरण में प्रदीप्त कर लेते हैं, वे (आनुषक्) निरन्तर (बर्हिः) ब्रह्मयज्ञ वा राष्ट्रयज्ञ को (स्तृणन्ति) फैलाते हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कि परमेश्वर को ही उपास्यरूप में वरण करें। प्रजाजनों को चाहिए कि युवा तथा राष्ट्र की रक्षा में समर्थ मनुष्य को ही राजा रूप में स्वीकार करें और स्वयं राष्ट्रभक्त हों ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १३३ क्रमाङ्केऽध्यात्मपक्षे व्याख्याता। अत्राध्यात्मविषयो राष्ट्रविषयश्च वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(येषाम्) उपासकानां प्रजाजनानां वा (युवा) तरुणः (इन्द्रः) वीरः परमेश्वरो वीरो नृपतिर्वा (सखा) सहायको जायते, (ये घ) ये च (अग्निम्) ईश्वरभक्तेः राष्ट्रभक्तेर्वा अग्निम् (आ इन्धते) स्वान्तःकरणे प्रदीपयन्ति, ते (आनुषक्) निरन्तरम् (बर्हिः) ब्रह्मयज्ञं राष्ट्रयज्ञं वा (स्तृणन्ति) विस्तारयन्ति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यैः परमेश्वर एवोपास्यत्वेन वरणीयः। प्रजाजनैश्च तरुणो राष्ट्ररक्षणक्षम एव जनो नृपतित्वेन स्वीकार्यः, स्वयं च राष्ट्रभक्तैर्भाव्यम् ॥१॥