अ꣡र्षा꣢ नः सोम꣣ शं꣡ गवे꣢꣯ धु꣣क्ष꣡स्व꣢ पि꣣प्यु꣢षी꣣मि꣡ष꣢म् । व꣡र्धा꣢ स꣣मु꣡द्र꣢मुक्थ्य ॥१३३७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अर्षा नः सोम शं गवे धुक्षस्व पिप्युषीमिषम् । वर्धा समुद्रमुक्थ्य ॥१३३७॥
अ꣡र्ष꣢꣯ । नः꣣ । सोम । श꣢म् । ग꣡वे꣢꣯ । धु꣣क्ष꣡स्व꣢ । पि꣣प्यु꣡षी꣢म् । इ꣡ष꣢꣯म् । व꣡र्ध꣢꣯ । स꣡मुद्र꣢म् । स꣣म् । उ꣢द्रम् । उ꣣क्थ्य ॥१३३७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।
हे (सोम) जगत् के रचयिता शान्तिप्रिय परमात्मन् ! आप (नः) हमारी (गवे) सारी धरती को (शम्) सुख-शान्ति (अर्ष) प्राप्त कराओ, हमें (पिप्युषीम्) समृद्ध (इषम्) अभीष्ट सम्पदा (धुक्ष्व) प्रदान करो। हे (उक्थ्य) स्तुतियोग्य ! (समुद्रम्) सद्गुणों के समुद्र जीवात्मा को अथवा उसमें विद्यमान आनन्द के समुद्र को (वर्ध) बढ़ाओ। जैसे सोम चन्द्रमा जलों के पारावार समुद्र को बढ़ाता है, यह यहाँ ध्वनित होता है ॥३॥
रमात्मा की कृपा से और मनुष्यों के प्रयत्न से सारी धरती सुख, शान्ति तथा प्रचुर सम्पदा प्राप्त करे और उसके निवासी आपस में प्रेम का व्यवहार करें ॥३॥ इस खण्ड में परत्मात्मा, ब्रह्मानन्द और गुरु-शिष्य के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ दशम अध्याय में एकादश खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (सोम) जगत्स्रष्टः शान्तिप्रिय परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्माकम् (गवे) सम्पूर्णधरित्र्यै (शम्) सुखं शान्तिं च (अर्ष) प्रापय, अस्मभ्यम् (पिप्युषीम्) समृद्धाम् [ओप्यायी वृद्धौ, लिटः क्वसौ रूपम्।] (इषम्) अभीष्टां सम्पत्तिम् (धुक्ष्व) प्रदेहि। हे (उक्थ्य) स्तुत्यर्ह ! (समुद्रम्) सद्गुणानां सागरं जीवात्मानम् यद्वा, तत्र विद्यमानम् आनन्दस्य सागरम् (वर्ध) वर्धय। यथा सोमेन चन्द्रमसाऽपां राशिः समुद्रो वर्ध्यते इति ध्वन्यते ॥३॥
परमात्मकृपया मानवानां प्रयासेन च सकलापि धरा सुखं शान्तिं प्रचुरां सम्पदं च प्राप्नुयात्, तन्निवासिनश्च परस्परं प्रेम्णा व्यवहरेयुः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो ब्रह्मानन्दस्य गुरुशिष्ययोश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥