प꣡व꣢स्व सोम म꣣हे꣢꣫ दक्षा꣣या꣢श्वो꣣ न꣢ नि꣣क्तो꣢ वा꣣जी꣡ धना꣢꣯य ॥१३३२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व सोम महे दक्षायाश्वो न निक्तो वाजी धनाय ॥१३३२॥
प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । महे꣢ । द꣡क्षा꣢꣯य । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । नि꣣क्तः꣢ । वा꣣जी꣢ । ध꣡ना꣢꣯य ॥१३३२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४३० क्रमाङ्क पर परमेश्वर और राजा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित है।
हे (सोम) विद्यारस के भण्डार आचार्य ! आप शिष्य के (महे दक्षाय) महान् उत्साह के लिए (पवस्व) ज्ञानधारा को प्रवाहित करो, जिससे वह आपका शिष्य (अश्वः न) सूर्य के समान (निक्तः) शुद्ध और (वाजी) विद्यावान्, वेगवान् तथा कर्मनिष्ठ होकर (धनाय) धन उपार्जन करने के योग्य हो सके ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
शिक्षा का एक यह भी प्रयोजन है कि शिष्य विद्वान्, बलवान् वर्चस्वी और शुद्ध हृदयवाला होकर धन कमाने में समर्थ हो सके ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४३० क्रमाङ्के परमेश्वरनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
हे (सोम) विद्यारसागार आचार्य ! त्वम्, शिष्यस्य (महे दक्षाय) महते उत्साहाय। [दक्षतिः उत्साहकर्मा। निरु० १।६।] (पवस्व) ज्ञानधारां प्रवाहय, येन स तव शिष्यः (अश्वः न) सूर्यः इव [असौ वा आदित्य एषो अश्वः। श० ७।३।२।१०] (निक्तः) शुद्धः, (वाजी), विद्यावान् वेगवान् कर्मनिष्ठो भूत्वा (धनाय) धनोपार्जनाय योग्यो भवेत् ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
इदमपि शिक्षाया एकं प्रयोजनं यच्छिष्यो विद्वान् बलवान् वर्चस्वी शुद्धहृदयश्च भूत्वा धनार्जनक्षमो भवेत् ॥१॥