इ꣡न्द्रा꣢य꣣ सोम꣣ पा꣡त꣢वे वृत्र꣣घ्ने꣡ परि꣢꣯ षिच्यसे । न꣡रे꣢ च꣣ द꣡क्षि꣢णावते वी꣣रा꣡य꣢ सदना꣣स꣡दे꣢ ॥१३३१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे । नरे च दक्षिणावते वीराय सदनासदे ॥१३३१॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । पा꣡त꣢꣯वे । वृ꣡त्र꣢꣯घ्ने । वृ꣣त्र । घ्ने꣢ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣡च्यसे । न꣡रे꣢꣯ । च꣣ । द꣡क्षि꣢꣯णावते । वी꣣रा꣡य꣢ । स꣣दनास꣡दे꣢ । स꣣दन । स꣡दे꣢꣯ ॥१३३१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में गुरुजन कह रहे हैं।
हे (सोम) ज्ञानरस ! तू (वृत्रघ्ने) व्रतपालन द्वारा दोषों को विनष्ट करनेवाले, (नरे) पुरुषार्थी, (दक्षिणावते) गुरुदक्षिणा देनेवाले, (वीराय) शूरवीर, (सदनासदे) गुरुकुलरूप सदन में निवास करनेवाले (इन्द्राय) बिजली के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी के (पातवे) पान के लिए (परिषिच्यसे) प्रवाहित किया जा रहा है ॥३॥
विद्यार्थियों को चाहिए कि वे स्वेच्छा से व्रतपालक, तपस्वी, शूर, आश्रम-पद्धति से गुरुकुल में ही निवास करनेवाले और समावर्तन के समय गुरुदक्षिणा देनेवाले हों ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ गुरवो ब्रुवन्ति।
हे (सोम) ज्ञानरस, त्वम् (वृत्रघ्ने) व्रतपालनेन दोषविनाशकाय, (नरे) नराय, पुरुषार्थिने। [अत्र चतुर्थ्येकवचनस्य ‘सुपां सुलुक्०’। अ० ७।१।३९ इति शे आदेशः।] (दक्षिणावते) गुरुदक्षिणायुक्ताय, (वीराय) शूराय, (सदनासदे) गुरुकुलसदननिवासिने (इन्द्राय२) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धये विद्यार्थिने (पातवे) पानाय (परिषिच्यसे) परिक्षार्यसे ॥३॥
विद्यार्थिभिः स्वेच्छया व्रतपालकैस्तपस्विभिः शूरैराश्रमपद्धत्या गुरुकुल एव निवासिभिः समावर्तनकाले गुरुदक्षिणाप्रदायकैश्च भाव्यम् ॥३॥