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प꣢रि꣣ त्य꣡ꣳ ह꣢र्य꣣त꣡ꣳ हरिं꣢꣯ ब꣣भ्रुं꣡ पु꣢नन्ति꣣ वा꣡रे꣢ण । यो꣢ दे꣣वा꣢꣫न्विश्वा꣣ꣳ इ꣢꣫त्परि꣣ म꣡दे꣢न स꣣ह꣡ गच्छ꣢꣯ति ॥१३२९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि त्यꣳ हर्यतꣳ हरिं बभ्रुं पुनन्ति वारेण । यो देवान्विश्वाꣳ इत्परि मदेन सह गच्छति ॥१३२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । त्यम् । ह꣣र्यत꣢म् । ह꣡रि꣢꣯म् । ब꣣भ्रु꣢म् । पु꣣नन्ति । वा꣡रे꣢꣯ण । यः । दे꣣वा꣢न् । वि꣡श्वा꣢꣯न् । इत् । प꣡रि꣢꣯ । म꣡दे꣢꣯न । स꣣ह꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯ति ॥१३२९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1329 | (कौथोम) 5 » 2 » 18 » 1 | (रानायाणीय) 10 » 11 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५५२ क्रमाङ्क पर जीवात्मा की शुद्धि के विषय में की गयी थी। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(हर्यतम्) प्रिय, (हरिम्) विद्या ग्रहण करने के शीलवाले, (बभ्रुम्) अज्ञान आदि दोषों से धूसर आत्मावाले (त्यम्) उस विद्यार्थी को, गुरुजन (वारेण) दोष-निवारक यम, नियम आदि से (परि पुनन्ति) परिशुद्ध करते हैं, (यः) जो विद्यार्थी (मदेन सह) उत्साह के साथ (विश्वान् इत् देवान्) सभी विद्वान् गुरुजनों के पास (परिगच्छति) पहुँचता है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

गुरुओं का यह कर्तव्य है कि वे प्यारे विद्यार्थियों का दोषों को निवारण करके उन्हें विद्वान् और प्रशस्त चरित्रवाला बनाएँ ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५५२ क्रमाङ्के जीवात्मशोधनविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(हर्यतम्) प्रियम्, (हरिम्) विद्याहरणशीलम्, (बभ्रुम्) अज्ञानादिदोषैः धूसरात्मानम् (त्यम्) तं विद्यार्थिनम्, गुरुजनाः (वारेण) दोषनिवारकेण यमनियमादिना (परि पुनन्ति) परिशोधयन्ति। (यः) विद्यार्थी (मदेन सह) उत्साहेन साकम् (विश्वान् इत् देवान्) सर्वानेव विदुषो गुरुजनान् (परि गच्छति) परि प्राप्नोति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

गुरूणामिदं कर्तव्यं यत्ते प्रियाणां विद्यार्थिनां दोषान् निवार्य तान् विदुषः प्रशस्तचरित्रांश्च कुर्युः ॥१॥