त्व꣢ꣳ सु꣣तो꣢ म꣣दि꣡न्त꣢मो दध꣣न्वा꣡न्म꣢त्स꣣रि꣡न्त꣢मः । इ꣡न्दुः꣢ सत्रा꣣जि꣡दस्तृ꣢꣯तः ॥१३२४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वꣳ सुतो मदिन्तमो दधन्वान्मत्सरिन्तमः । इन्दुः सत्राजिदस्तृतः ॥१३२४॥
त्व꣢म् । सु꣣तः꣢ । म꣣दि꣡न्त꣢मः । द꣣धन्वा꣢न् । म꣣त्सरि꣡न्त꣣मः । इ꣡न्दुः꣢꣯ । स꣣त्राजि꣢त् । स꣣त्रा । जि꣢त् । अ꣡स्तृ꣢꣯तः । अ । स्तृ꣣तः ॥१३२४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि आराधना किया गया परमेश्वर क्या करता है।
हे परमात्मन् ! (इन्दुः) तेजस्वी (त्वम्) आप (सुतः) आराधना किये हुए (मदिन्तमः) अतिशय प्रसन्न, (दधन्वान्) धारणकर्ता, (मत्सरिन्तमः) अत्यन्त आनन्द देनेवाले, (सत्राजित्) एक साथ उपासक के सब काम, क्रोध आदि रिपुओं को जीत लेनेवाले और (अस्तृतः) स्वयं सदा अहिंसित होते हो ॥२॥
सच्चे हृदय से की गयी परमेश्वर की उपासना बहुत से फलों को देनेवाली होती है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथाराधितः परमेश्वरः किं करोतीत्याह।
हे परमात्मन् ! (इन्दुः) तेजस्वी (त्वम् मदिन्तमः) अतिशयेन प्रसन्नः, (दधन्वान्) धारकः, (मत्सरिन्तमः) अतिशयेनानन्दजनकः, (सत्राजित्२) युगपत् उपासकस्य सर्वेषां कामक्रोधादीनां रिपूणां विजेता, (अस्तृतः) स्वयं सदा अंहिसितश्च भवसि। [मदिन्तमः, मत्सरिन्तमः इत्यत्र नलोपाभावश्छान्दसः] ॥२॥
सत्यहृदयेन कृता परमेश्वरोपासना प्रचुरफलप्रदा जायते ॥२॥