त्व꣡ꣳ हि रा꣢꣯धसस्पते꣣ रा꣡ध꣢सो म꣣हः꣢꣫ क्षय꣣स्या꣡सि꣢ विध꣣र्त्ता꣢ । तं꣡ त्वा꣢ व꣣यं꣡ म꣢घवन्निन्द्र गिर्वणः सु꣣ता꣡व꣢न्तो हवामहे ॥१३२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वꣳ हि राधसस्पते राधसो महः क्षयस्यासि विधर्त्ता । तं त्वा वयं मघवन्निन्द्र गिर्वणः सुतावन्तो हवामहे ॥१३२२॥
त्व꣢म् । हि । रा꣣धसः । पते । रा꣡ध꣢꣯सः । म꣣हः꣢ । क्ष꣡य꣢꣯स्य । अ꣡सि꣢꣯ । वि꣣धर्त्ता꣢ । वि꣣ । धर्त्ता꣢ । तम् । त्वा꣣ । वय꣢म् । म꣣घवन् । इन्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः । सुता꣡व꣢न्तः । ह꣣वामहे ॥१३२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर जगदीश्वर और आचार्य को सम्बोधन है।
हे (राधसः पते) सकल ऋद्धि-सिद्धियों के अधीश्वर जगदीश वा आचार्यवर ! (त्वं हि) आप (महतः) महान् (क्षयस्य) निवासक, (राधसः) विद्या, तप, तेजस्विता आदि रूप धन के (विधर्ता) विशेष रूप से धारण करनेवाले (असि) हो। हे (मघवन्) विद्या आदि के दानी, (गिर्वणः) वाचस्पति (इन्द्र) अविद्या आदि के विदारक जगदीश्वर वा आचार्य ! (सुतावन्तः) श्रद्धारस का उपहार लिये हुए (वयम्) हम उपासक वा विद्यार्थी (त्वा) आपको (हवामहे) पुकार रहे हैं ॥२॥
जैसे जगदीश्वर सब गुणों का अधिपति है, वैसे ही आचार्य वही हो सकता है जो विद्वान्, वाणी पर अधिकार रखनेवाला, तपस्वी, जितेन्द्रिय और शिक्षणकला में कुशल हो ॥२॥ इस खण्ड में जगदीश्वर और आचार्य के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ दशम अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि जगदीश्वरमाचार्यं च सम्बोधयति।
हे (राधसः पते) सकलऋद्धिसिद्धीनामधीश्वर जगदीश्वर आचार्यवर वा ! (त्वं हि) त्वं खलु (महः) महतः (क्षयस्य) निवासकस्य (राधसः) विद्यातपस्तेजस्वितादिरूपस्य धनस्य (विधर्ता) विधारकः (असि) विद्यसे। हे (मघवन्) विद्यादिदानवन् ! [मघं मंहतेर्दानकर्मणः। निरु० १।६।] (गिर्वणः) गीष्पते (इन्द्र) अविद्यादिविदारक जगदीश्वर आचार्य वा ! (सुतावन्तः) उपहृतश्रद्धारसाः (वयम्) उपासकाः विद्यार्थिनो वा (त्वा) त्वाम् (हवामहे) आह्वयामः ॥२॥
यथा जगदीश्वरः सर्वेषां गुणानामधिपतिर्विद्यते तथैव स एवाचार्यो भवितुं योग्यो यो विद्वान् वाक्पतिस्तपस्वी जितेन्द्रियः शिक्षणकलाकुशलश्च भवेत् ॥२॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरविषयस्याचार्यविषयस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥