व꣣य꣡मि꣢न्द्र त्वा꣣य꣢वो꣣ऽभि꣡ प्र नो꣢꣯नुमो वृषन् । वि꣣द्धी꣢ त्वा३꣱स्य꣡ नो꣢ वसो ॥१३२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वयमिन्द्र त्वायवोऽभि प्र नोनुमो वृषन् । विद्धी त्वा३स्य नो वसो ॥१३२॥
व꣣य꣢म् । इ꣣न्द्र । त्वाय꣡वः꣢ । अ꣣भि꣢ । प्र । नो꣣नुमः । वृषन् । विद्धि꣢ । तु । अ꣣स्य꣢ । नः꣣ । वसो ॥१३२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में स्तोताजन परमात्मा से निवेदन कर रहे हैं।
हे (वृषन्) अभीष्ट सुखों, शक्तियों और धन आदि की वर्षा करनेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली, दुःखविदारक, शत्रुसंहारक परमात्मन् ! (वयम्) हम उपासक (त्वायवः) आपकी कामनावाले, हम आपके प्रेम के वश होते हुए (अभि प्र नोनुमः) आपकी भली-भाँति अतिशय पुनः-पुनः स्तुति करते हैं। हे (वसो) सर्वान्तर्यामी, निवासक देव ! आप (अस्य) इस किये जाते हुए स्तोत्र को (विद्धि) जानिए ॥८॥
हे इन्द्र ! परमैश्वर्यशालिन् ! हे परमैश्वर्यप्रदातः ! हे विपत्तिविदारक ! हे धर्मप्रसारक ! हे अधर्मध्वंसक ! हे मित्रों को सहारा देनेवाले ! हे शत्रुविनाशक ! हे आनन्दधारा को प्रवाहित करनेवाले ! हे सद्गुणों की वर्षा करनेवाले ! हे मनोरथों के पूर्णकर्ता ! हे हृदय में बसनेवाले ! हे निवासक ! आपके प्रेमरस में मग्न, आपकी प्राप्ति के लिए उत्सुक हम बार-बार आपकी वन्दना करते हैं, आपको प्रणाम करते हैं, आपके गुणों का कीर्तन करते हैं। नतमस्तक होकर हमसे किये जाते हुए वन्दन, प्रणाम और गुणकीर्तन को आप जानिए, स्वीकार कीजिए और हमें उद्बोधन दीजिए ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्तोतारः परमात्मानमाहुः।
हे (वृषन्) अभीप्सितानां सुखानां शक्तीनां धनादीनां च वर्षयितः (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन्, दुःखविदारक, शत्रुसंहारक परमात्मन् ! (वयम्) उपासकाः (त्वायवः) त्वां कामयमानाः, त्वत्प्रीतिपरवशाः सन्तः। त्वां कामयते इति त्वायुः, क्यचि क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७० इति उः प्रत्ययः। (अभि प्र नोनुमः) त्वामभिलक्ष्य प्रकर्षतया भृशं पुनः पुनः स्तुमः प्रणमामो वा। णु स्तुतौ इत्यस्य यङ्लुकि प्रयोगः। हे (वसो) सर्वान्तर्यामिन्, निवासयितः देव ! त्वम् (अस्य२) क्रियमाणस्य स्तोत्रस्य प्रणतिकर्मणो वा। द्वितीयार्थे षष्ठी। (विद्धि तु) जानीहि तावत्। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते। अ० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥८॥३
हे इन्द्र ! हे परमैश्वर्यशालिन् ! हे परमैश्वर्यप्रदातः ! हे विपद्विदारक ! हे धर्मप्रसारक ! हे अधर्मध्वंसक ! हे सुहृद्धारक ! हे रिपुविनाशक ! हे आनन्दधाराप्रवाहक ! हे सद्गुणवृष्टिकर्त्तः ! हे मनोरथप्रपूरक ! हे हृदयसदननिवासिन् ! हे निवासप्रद ! त्वत्प्रीतिरसमग्नास्त्वत्प्राप्तिसमुत्सुका वयम् भूयो भूयस्त्वां वन्दामहे, त्वां प्रणमामः, त्वद्गुणान् कीर्तयामः। त्वं नतशिरसाऽस्माभिः क्रियमाणं वन्दनं, प्रणामं, गुणकीर्तनं च जानीहि, स्वीकुरु, समुद्बोधय चास्मान् ॥८॥