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देवता: इन्द्रः ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प्र꣣जा꣢मृ꣣त꣢स्य꣣ पि꣡प्र꣢तः꣣ प्र꣡ यद्भर꣢꣯न्त꣣ व꣡ह्न꣢यः । वि꣡प्रा꣢ ऋ꣣त꣢स्य꣣ वा꣡ह꣢सा ॥१३०९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्रजामृतस्य पिप्रतः प्र यद्भरन्त वह्नयः । विप्रा ऋतस्य वाहसा ॥१३०९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣣जा꣢म् । प्र꣣ । जा꣢म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । पि꣡प्र꣢꣯तः । प्र । यत् । भ꣡र꣢꣯न्त । व꣡ह्न꣢꣯यः । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । ऋत꣡स्य꣢ । वा꣡ह꣢꣯सा ॥१३०९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1309 | (कौथोम) 5 » 2 » 10 » 3 | (रानायाणीय) 10 » 8 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में सत्य का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत्) जब (वह्नयः) ब्रह्मयज्ञ को वहन करनेवाले उपासक लोग (पिप्रतः) पालनकर्ता, (ऋतस्य) सत्य के (प्रजाम्) उत्पादक परमेश्वर को (प्रभरन्त) अन्तरात्मा में धारण कर लेते हैं, तब वे (विप्राः) विद्वान् जन (ऋतस्य) सत्य के (वाहसा) प्रचारक हो जाते हैं ॥३॥

भावार्थभाषाः -

सत्यज्ञान और सत्यकर्म के आदर्शरूप परमात्मा का अनुभव करके और अपने जीवन में सत्य को लाकर ही सत्य का प्रचार आसानी से हो सकता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ दशम अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सत्यस्य विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत्) यदा (वह्नयः) ब्रह्मयज्ञस्य वोढारः उपासकाः (पिप्रतः) पालयतः [पॄ पालनपूरणयोः, शतृः।] (ऋतस्य) सत्यस्य (प्रजाम्) प्रकर्षेण जनयितारं परमेश्वरम् (प्र भरन्त) अन्तरात्मनि धारयन्ति, तदा ते (विप्राः) विद्वांसो जनाः (ऋतस्य) सत्यस्य (वाहसा) वाहसः प्रचारका जायन्ते। [वाहस् शब्दाज्जसि ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इत्यनेन जस आकारादेशः] ॥३॥

भावार्थभाषाः -

सत्यज्ञानस्य सत्यकर्मणश्चादर्शभूतं परमात्मानमनुभूय स्वजीवने सत्यमानीयैव सत्यं प्रचारयितुं सुशकम् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥