म꣣हा꣢꣫ꣳ इन्द्रो꣣ य꣡ ओज꣢꣯सा प꣣र्ज꣡न्यो꣢ वृष्टि꣣मा꣡ꣳ इ꣢व । स्तो꣡मै꣢र्व꣣त्स꣡स्य꣢ वावृधे ॥१३०७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)महाꣳ इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाꣳ इव । स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे ॥१३०७॥
म꣣हा꣢न् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । यः । ओ꣡ज꣢꣯सा । प꣣र्ज꣡न्यः꣢ । वृ꣣ष्टिमा꣢न् । इ꣣व । स्तो꣡मैः꣢꣯ । व꣣त्स꣡स्य꣢ । वा꣣वृधे ॥१३०७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में परमात्मा का विषय वर्णित है।
(यः इन्द्रः) जो परमैश्वर्यशाली जगदीश्वर (वृष्टिमान् पर्यन्यः इव) वृष्टिजल से परिपूर्ण मेघ के समान (ओजसा) बल से (महान्) महान् है, वह (वत्सस्य) अपने पुत्र मानव की (स्तोमैः) प्रशस्तियों से (वावृधे) बढ़ता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे पुत्र की प्रशस्तियों से पिता प्रशस्त होता है, वैसे ही पहले से ही बादल के समान महान् परमेश्वर भी मानव की प्रशस्तियों से और अधिक महान् हो जाता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ परमात्मविषयमाह।
(यः इन्द्रः) यः परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (वृष्टिमान् पर्जन्यः इव) वृष्टिजलयुक्तो मेघ इव (ओजसा) बलेन (महान्) महिमोपेतः अस्ति सः (वत्सस्य२) स्वपुत्रस्य मानवस्य (स्तोमैः) प्रशस्तिभिः (वावृधे) वर्धते ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
यथा पुत्रस्य प्रशस्तिभिः पिता प्रशस्तो जायते, तथैव पूर्वमेव पर्जन्यवन्महानपि परमेश्वरो मानवस्य प्रशस्तिभिर्महत्तरो जायते ॥१॥