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पा꣣वमानी꣢꣫र्यो अ꣣ध्ये꣡त्यृषि꣢꣯भिः꣣ स꣡म्भृ꣢त꣣ꣳ र꣡स꣢म् । त꣢स्मै꣣ स꣡र꣢स्वती दुहे क्षी꣣र꣢ꣳ स꣣र्पि꣡र्म꣢꣯धूद꣣क꣢म् ॥१२९९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पावमानीर्यो अध्येत्यृषिभिः सम्भृतꣳ रसम् । तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरꣳ सर्पिर्मधूदकम् ॥१२९९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पा꣣वमानीः꣢ । यः । अ꣣ध्ये꣡ति꣢ । अ꣣धि । ए꣡ति꣢꣯ । ऋ꣡षि꣢꣯भिः । स꣡म्भृ꣢꣯तम् । सम् । भृ꣣तम् । र꣡स꣢꣯म् । त꣡स्मै꣢꣯ । स꣡र꣢꣯स्वती । दुहे । क्षीर꣢म् । स꣣र्पिः꣢ । म꣡धु꣢꣯ । उद꣣क꣢म् ॥१२९९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1299 | (कौथोम) 5 » 2 » 8 » 2 | (रानायाणीय) 10 » 7 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर वेदाध्ययन का फल कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) जो मनुष्य (ऋषिभिः संभृतं रसम्) वेद के रहस्य जाननेवाले ऋषियों ने जिनके रस का आस्वादन किया है, ऐसी (पावमानीः) पवमान देवतावाली ऋचाओं का (अध्येति) अर्थज्ञानपूर्वक अध्ययन करता है, (तस्मै) उस मनुष्य के लिए (सरस्वती) वेदमाता (क्षीरम्) दूध, (सर्पिः) घी, (मधु) शहद और (उदकम्) स्वच्छ जल (दुहे) स्वयं दुह देती है ॥ वेद में अन्यत्र भी कहा गया है—मैंने वरदात्री वेदमाता की स्तुति की है, आप लोग भी उसका अध्ययन-स्तवन करो, क्योंकि वह द्विजों को पवित्र करनेवाली है। वह मुझ वेदाध्येता को आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्मवचर्स् देकर मेरे आत्मलोक ब्रह्मलोक में निवास करने लगी है। (अथ० १९।७१।१) ॥२॥

भावार्थभाषाः -

वेद का अध्ययन करके और उसके अनुकूल आचरण करके जो पुरुषार्थी होता है, वह सब सम्पदाओं को प्राप्त कर सकता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्वेदाध्ययनफलमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) यो जनः (ऋषिभिः संभृतं रसम्) वेदरहस्यविद्भिः आस्वादितरसरूपाः (पावमानीः) पवमानदेवताका ऋचः (अध्येति२) अर्थज्ञानपूर्वकम् अधीते (तस्मै) जनाय (सरस्वती) वेदमाता (क्षीरम्) दुग्धम्, (सर्पिः) घृतम्, (मधु) माक्षिकम्, (उदकम्) स्वच्छं तोयं च (दुहे) स्वयमेव दुग्धे। [दुह प्रपूरणे, कर्मकर्तरि ‘न दुहस्नुनमाम्’। अ० ३।१।८९ इत्यादिना यक् प्रतिषिध्यते। ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’। अ० ७।१।४१ इति तलोपः] ॥ उक्तं चान्यत्र—‘स्तु॒ता मया॑ वर॒दा वे॑दमा॒ता प्रचो॑दयन्तां पावमा॒नी द्विजाना॑म्। आयुः॑ प्रा॒णं प्र॒जां प॒शुं की॒र्तिं द्रवि॑णं ब्रह्मवर्च॒सम्। मह्यं॑ द॒त्त्वा व्र॑जत ब्रह्मलो॒कम् ॥’ अथ० १९।७१।१ ॥२॥

भावार्थभाषाः -

वेदाध्ययनेन तदनुकूलाचरणेन च पुरुषार्थिना सता सर्वाः सम्पदः प्राप्तुं शक्यन्ते ॥२॥