यः꣡ पा꣢वमा꣣नी꣢र꣣ध्ये꣡त्यृषि꣢꣯भिः꣣ स꣡म्भृ꣢त꣣ꣳ र꣡स꣢म् । स꣢र्व꣣ꣳ स꣢ पू꣣त꣡म꣢श्नाति स्वदि꣣तं꣡ मा꣢त꣣रि꣡श्व꣢ना ॥१२९८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यः पावमानीरध्येत्यृषिभिः सम्भृतꣳ रसम् । सर्वꣳ स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना ॥१२९८॥
यः꣢ । पा꣣वमानीः꣢ । अ꣣ध्ये꣡ति꣢ । अ꣣धि । ए꣡ति꣢꣯ । ऋ꣡षि꣢꣯भिः । सं꣡भृ꣢꣯तम् । सम् । भृ꣣तम् । र꣡स꣢꣯म् । स꣡र्व꣢꣯म् । सः । पू꣣त꣢म् । अ꣣श्नाति । स्वदित꣢म् । मा꣣तरि꣡श्व꣢ना ॥१२९८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में वेद के अध्ययन का फल वर्णित है।
(यः) जो मनुष्य (ऋषिभिः संभृतं रसम्) वेद के रहस्य को जाननेवाले ऋषियों ने जिनके रस का आस्वादन किया है, ऐसी (पावमानीः) पवमान देवतावाली ऋचाओं का (अध्येति) अर्थज्ञानपूर्वक अध्ययन करता है, (सः) वह (मातरिश्वना) वायु से (स्वदितम्) स्वादु बनाये गये (सर्वम्) सब (पूतम्) पवित्र भोज्य पदार्थ को (अश्नाति) खाता है ॥१॥ यहाँ पावमानी ऋचाओं का अध्ययन सब पवित्र भोज्य पदार्थों के आस्वादन के समान तृप्तिकारी होता है, इस प्रकार उपमा में पर्यवसान होने के कारण निदर्शना अलङ्कार है ॥१॥
वैदिक ऋचाओं के अर्थज्ञानपूर्वक अध्ययन से और उसके अनुकूल आचरण से अध्ययन करनेवालों का महान् कल्याण होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ वेदाध्ययनफलमाह।
(यः) यो जनः (ऋषिभिः संभृतं रसम्) वेदरहस्यविद्भिः आस्वादितरसरूपाः (पावमानीः) पवमानदेवताका ऋचः (अध्येति) अर्थज्ञानपूर्वकम् अधीते। [इक् स्मरणे, अदादिः।] (सः) असौ (मातरिश्वना) वायुना (स्वदितम्) स्वादु सम्पादितम् (सर्वम्) सकलम् (पूतम्) पवित्रं भोज्यं वस्तु (अश्नाति) भुङ्क्ते। [अश भोजने क्र्यादिः] ॥१॥ अत्र पावमानीनामृचामध्ययनं सर्वपवित्रभोज्यास्वादनवत् तृप्तिकरमित्युपमायां पर्यवसानान्निदर्शनालङ्कारः२ ॥१॥
वैदिकीनामृचामर्थज्ञानपूर्वकमध्ययनेन तदनुकूलाचरणेन चाध्येतॄणां महत् कल्याणं सम्पद्यते ॥१॥