स꣢ दे꣣वः꣢ क꣣वि꣡ने꣢षि꣣तो꣢३꣱ऽभि꣡ द्रोणा꣢꣯नि धावति । इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्रा꣢य म꣣ꣳह꣡य꣢न् ॥१२९७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स देवः कविनेषितो३ऽभि द्रोणानि धावति । इन्दुरिन्द्राय मꣳहयन् ॥१२९७॥
सः꣢ । दे꣣वः꣢ । क꣣वि꣡ना꣢ । इ꣣षितः꣢ । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । धा꣣वति । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣣ꣳह꣡य꣢न् ॥१२९७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा का विषय है।
(कविना) मेधावी गुरु से (इषितः) प्रेरित (सः) वह (देवः) स्तुतिकर्ता (इन्दुः) तेजस्वी जीवात्मा (इन्द्राय) परमात्मा को (मंहयन्) आत्मसमर्पण करता हुआ (द्रोणानि अभि) लक्ष्यों की ओर (विधावति) वेग से दौड़ता है ॥६॥
परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण करने से जीवात्मा में कोई विलक्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे वह सब विघ्नों को दूर फेंकता हुआ लक्ष्य तक जा पहुँचता है ॥६॥ इस खण्ड में परमात्मा और जीवात्मा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मविषय उच्यते।
(कविना) मेधाविना गुरुणा (इषितः) प्रेरितः (सः) असौ (देवः) स्तोता। [दीव्यति स्तुतिकर्मा।] (इन्दुः) तेजस्वी जीवात्मा (इन्द्राय) परमात्मने (मंहयन्) आत्मानं समर्पयन्। [मंहते ददातिकर्मा। निघं० ३।२०। तत्र मंहयतिरपि पठितव्यः।] (द्रोणानि अभि) लक्ष्याणि प्रति (धावति) वेगेन गच्छति। [लक्ष्यसूचनार्थं यः काष्ठमयो यूपो निखन्यते तद् द्रोणमित्युच्यते] ॥६॥
परमात्मानं प्रत्यात्मसमर्पणेन जीवात्मनि काचिद् विलक्षणा शक्तिरुत्पद्यते यया स सर्वान् विघ्नानपास्यन् लक्ष्यं प्राप्नोति ॥६॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मजीवात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥