स꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ विचक्ष꣣णो꣡ हरि꣢꣯रर्षति धर्ण꣣सिः꣢ । अ꣣भि꣢꣫ योनिं꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥१२९३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः । अभि योनिं कनिक्रदत् ॥१२९३॥
सः । प꣣वि꣡त्रे꣢ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣣र्षति । ध꣣र्णसिः꣢ । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । क꣡नि꣢꣯क्रदत् ॥१२९३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब कैसा परमेश्वर क्या करता हुआ कहाँ जाता है, यह कहते हैं।
(सः) वह (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा, (धर्णसिः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों का धारण करनेवाला, (हरिः) पाप हरनेवाला परमेश्वर (कनिक्रदत्) उपदेश देता हुआ (योनिम् अभि) अपने निवासगृहभूत जीवात्मा को लक्ष्य करके (पवित्रे) पवित्र हृदय में (अर्षति) पहुँचता है ॥२॥
पवित्रात्मा लोग ही परमेश्वर की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशः परमेश्वरः किं कुर्वन् कुत्र गच्छतीत्याह।
(सः) असौ (विचक्षणः) विद्रष्टा, (धर्णसिः) दिव्यगुणकर्मस्वभावानां धारकः (हरिः) पापहर्ता परमेश्वरः (कनिक्रदत्) उपदिशन् (योनिम् अभि) स्वनिवासगृहभूतं जीवात्मानमभिलक्ष्य (पवित्रे) परिपूते हृदये (अर्षति) गच्छति ॥२॥
पवित्रात्मान एव जनाः परमेश्वरप्राप्तेरधिकारिणो भवन्ति ॥२॥