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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: राहूगण आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ विचक्ष꣣णो꣡ हरि꣢꣯रर्षति धर्ण꣣सिः꣢ । अ꣣भि꣢꣫ योनिं꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥१२९३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः । अभि योनिं कनिक्रदत् ॥१२९३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः । प꣣वि꣡त्रे꣢ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣣र्षति । ध꣣र्णसिः꣢ । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । क꣡नि꣢꣯क्रदत् ॥१२९३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1293 | (कौथोम) 5 » 2 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 10 » 6 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब कैसा परमेश्वर क्या करता हुआ कहाँ जाता है, यह कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) वह (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा, (धर्णसिः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों का धारण करनेवाला, (हरिः) पाप हरनेवाला परमेश्वर (कनिक्रदत्) उपदेश देता हुआ (योनिम् अभि) अपने निवासगृहभूत जीवात्मा को लक्ष्य करके (पवित्रे) पवित्र हृदय में (अर्षति) पहुँचता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

पवित्रात्मा लोग ही परमेश्वर की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ कीदृशः परमेश्वरः किं कुर्वन् कुत्र गच्छतीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सः) असौ (विचक्षणः) विद्रष्टा, (धर्णसिः) दिव्यगुणकर्मस्वभावानां धारकः (हरिः) पापहर्ता परमेश्वरः (कनिक्रदत्) उपदिशन् (योनिम् अभि) स्वनिवासगृहभूतं जीवात्मानमभिलक्ष्य (पवित्रे) परिपूते हृदये (अर्षति) गच्छति ॥२॥

भावार्थभाषाः -

पवित्रात्मान एव जनाः परमेश्वरप्राप्तेरधिकारिणो भवन्ति ॥२॥