स꣢ सु꣣तः꣢ पी꣣त꣢ये꣣ वृ꣢षा꣣ सो꣡मः꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ अर्षति । वि꣣घ्न꣡न्रक्षा꣢꣯ꣳसि देव꣣युः꣢ ॥१२९२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स सुतः पीतये वृषा सोमः पवित्रे अर्षति । विघ्नन्रक्षाꣳसि देवयुः ॥१२९२॥
सः꣢ । सु꣣तः꣢ । पी꣣त꣡ये꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣣र्षति । विघ्न꣢न् । वि꣣ । घ्न꣢न् । र꣡क्षा꣢꣯ꣳसि । दे꣣वयुः꣢ ॥१२९२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में परमात्मा की उपासना का फल बताया गया है।
(पीतये) रसास्वादन करने के लिए (सुतः) उपासना किया गया (सः) वह (वृषा) आनन्द की वर्षा करनेवाला (सोमः) रसमय परमेश्वर (पवित्रे) पवित्र अन्तरात्मा में (अर्षति) पहुँच रहा है। (देवयुः) दिव्यगुण प्रदान करना चाहता हुआ वह (रक्षांसि) पापों को (विघ्नन्) विशेष रूप से नष्ट कर रहा है ॥१॥
परमात्मा की उपासना से अन्तरात्मा में दिव्यगुण आते हैं और दोष नष्ट होते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ परमात्मोपासनायाः फलमाह।
(पीतये) पानाय, रसास्वादनाय (सुतः) उपासितः (सः) असौ (वृषा) आनन्दवर्षकः (सोमः) रसमयः परमेश्वरः (पवित्रे) शुद्धेऽन्तरात्मनि (अर्षति) गच्छति। (देवयुः) दिव्यगुणान् प्रदातुं कामयमानः सः। [छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्। अ० ३।१।८। वा० इत्यनेन परेच्छायां क्यच्, क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७० इति उ प्रत्ययः।] (रक्षांसि) पापानि (विघ्नन्) विनाशयन् भवति ॥१॥
परमात्मोपासनेनान्तरात्मनि दिव्यगुणाः समायान्ति, दोषाश्च विनश्यन्ति ॥१॥