ए꣣ष꣢ शु꣣ष्म्य꣡दा꣢भ्यः꣣ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥१२९१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष शुष्म्यदाभ्यः सोमः पुनानो अर्षति । देवावीरघशꣳसहा ॥१२९१॥
ए꣣षः꣢ । शु꣣ष्मी꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । सो꣡मः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣र्षति । दे꣣वावीः꣢ । दे꣣व । अवीः꣢ । अ꣣घशꣳसहा꣢ । अ꣣घशꣳस । हा꣢ ॥१२९१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः परमात्मा का वर्णन है।
(एषः) यह (शुष्मी) बलवान् (अदाभ्यः) दबाया या हराया न जा सकनेवाला, (देवावीः) दिव्यगुणों का रक्षक, (अघशंसहा) पापप्रशंसक भावों को नष्ट करनेवाला (सोमः) प्रेरक परमेश्वर (पुनानः) पवित्रता देता हुआ (अर्षति) सक्रिय है ॥६॥
परमेश्वर से प्रेरणा प्राप्त करके सभी मनुष्य पवित्र हृदयवाले हों ॥६॥ इस खण्ड में परमात्मा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि परमात्मानं वर्णयति।
(एषः) अयम् (शुष्मी) बलवान् (अदाभ्यः) दब्धुं पराजेतुमशक्यः, (देवावीः) दिव्यगुणानां रक्षकः, (अघशंसहा) पापप्रशंसकानां भावानां हन्ता (सोमः) प्रेरकः परमेश्वरः (पुनानः) पवित्रतां प्रयच्छन् (अर्षति) सक्रियोऽस्ति ॥६॥
परमेश्वरात् प्रेरणां प्राप्य सर्वैः पवित्रहृदयैर्भाव्यम् ॥६॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥