ए꣣ष꣢ शु꣣꣬ष्म्य꣢꣯सिष्यदद꣣न्त꣡रि꣢क्षे꣣ वृ꣢षा꣣ ह꣡रिः꣢ । पु꣣ना꣢꣫न इन्दु꣣रि꣢न्द्र꣣मा꣡ ॥१२९०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः । पुनान इन्दुरिन्द्रमा ॥१२९०॥
ए꣣षः꣢ । शु꣣ष्मी꣢ । अ꣣सिष्यदत् । अन्त꣡रि꣢क्षे । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ ॥१२९०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर वही विषय है।
(एषः) यह (शुष्मी) बलवान्, (वृषा) आनन्दवर्षक, (हरिः) पापों को हरनेवाला (इन्दुः) रसमय परमेश्वर (इन्द्रम्) जीवात्मा को (आ पुनानः) चारों ओर से पवित्र करता हुआ (अन्तरिक्षे) मनोमय कोश में (असिष्यदत्) प्रवाहित हो रहा है ॥५॥
जैसे अन्तरिक्ष में स्थित चन्द्रमा चाँदनी के रस को प्रसारित करता है, वैसे ही हृदय-प्रदेश में स्थित परमेश्वर आनन्द-रस को प्रवाहित करता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः स एव विषयो वर्ण्यते।
(एषः) अयम् (शुष्मी) बलवान्। [शुष्ममिति बलनाम शोषयतीति सतः। निरु० २।२३।] (वृषा) आनन्दवर्षकः (हरिः) पापहर्ता (इन्दुः) रसमयः परमेश्वरः (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (आ पुनानः) समन्तात् पावयन् (अन्तरिक्षे) मनोमयकोशे (असिष्यदत्) प्रस्यन्दते ॥५॥
यथाऽन्तरिक्षे स्थितश्चन्द्रमाश्चन्द्रिकारसं प्रसारयति तथा हृद्देशे स्थितः परमेश्वर आनन्दरसं प्रवाहयति ॥५॥