ए꣣ष꣡ इन्द्रा꣢꣯य वा꣣य꣡वे꣢ स्व꣣र्जि꣡त्परि꣢꣯ षिच्यते । प꣣वि꣡त्रे꣢ दक्ष꣣सा꣡ध꣢नः ॥१२८७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते । पवित्रे दक्षसाधनः ॥१२८७॥
ए꣡षः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । स्व꣣र्जि꣢त् । स्वः꣣ । जि꣢त् । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यते । पवि꣡त्रे꣢ । द꣣क्षसा꣡ध꣢नः । द꣣क्ष । सा꣡ध꣢꣯नः ॥१२८७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः वही विषय है।
(स्वर्जित्) परमानन्द का विजेता, (दक्षसाधनः) बलदायक (एषः) यह सोम परमेश्वर (इन्द्राय) मन के हितार्थ और (वायवे) प्राण के हितार्थ (पवित्रे) पवित्र अन्तरात्मा में (परि षिच्यते) चारों ओर से सींचा जा रहा है ॥२॥
उपासक के अन्तरात्मा में परमात्मा के प्रकट हो जाने पर मन, बुद्धि, प्राण आदि सभी बलवान् हो जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः स एव विषय उच्यते।
(स्वर्जित्) परमानन्दस्य जेता, (दक्षसाधनः) बलकारी (एषः) अयं सोमः परमेश्वरः (इन्द्राय) मनसो हिताय (वायवे) प्राणस्य हिताय च (पवित्रे) पवित्रे अन्तरात्मनि (परि षिच्यते) परिक्षार्यते ॥२॥
उपासकस्यान्तरात्मनि परमात्मन्याविर्भूते सति मनोबुद्धिप्राणादीनि सर्वाण्यपि बलवन्ति जायन्ते ॥२॥