वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

ए꣣ष꣡ सूर्ये꣢꣯ण हासते सं꣣व꣡सा꣢नो वि꣣व꣡स्व꣢ता । प꣡ति꣢र्वा꣣चो꣡ अदा꣢꣯भ्यः ॥१२८५

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

एष सूर्येण हासते संवसानो विवस्वता । पतिर्वाचो अदाभ्यः ॥१२८५

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एषः꣢ । सूर्येण । हा꣣सते । सं꣡वसा꣢नः । स꣣म् । व꣡सा꣢꣯नः । वि꣣व꣡स्व꣢ता । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯ता । प꣡तिः꣢꣯ । वा꣣चः꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः ॥१२८५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1285 | (कौथोम) 5 » 2 » 5 » 6 | (रानायाणीय) 10 » 4 » 1 » 6


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(संवसानः) सबको अपने तेज से आच्छादित करता हुआ (एषः) यह सोम परमेश्वर (विवस्वता) अन्धकार को दूर करनेवाले (सूर्येण) सूर्य के साथ (हासते) स्पर्धा करता है और (अदाभ्यः) जिसे दबाया या पराजित नहीं किया जा सकता, ऐसा यह (वाचः पतिः) वाणी का भी स्वामी है ॥६॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर सूर्य, बिजली आदि से भी अधिक तेजस्वी और वाचस्पतियों का भी मूर्धन्य है ॥६॥ इस खण्ड में परमात्मा और जीवात्मा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(संवसानः) सर्वं स्वतेजसा आच्छादयन्। [वस आच्छादने, अदादिः।] (एषः) अयं सोमः परमेश्वरः (विवस्वता) तमोविवासनवता (सूर्येण) आदित्येन (हासते) स्पर्धते। [हासति स्पर्धायाम्। निरु० ९।३७।] अपि च, (अदाभ्यः) दब्धुं पराजेतुमशक्यः एषः (वाचः पतिः) गीष्पतिः अपि विद्यते ॥६॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरः सूर्यविद्युदादिभ्योऽप्यधिकतेजा वाचस्पतीनामपि च मूर्धन्यो विद्यते ॥६॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो जीवात्मनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥