ए꣣ष꣢꣫ वृषा꣣ क꣡नि꣢क्रदद्द꣣श꣡भि꣢र्जा꣣मि꣡भि꣢र्य꣣तः꣢ । अ꣣भि꣡ द्रोणा꣢꣯नि धावति ॥१२८३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष वृषा कनिक्रदद्दशभिर्जामिभिर्यतः । अभि द्रोणानि धावति ॥१२८३॥
ए꣣षः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । द꣣श꣡भिः꣢ । जा꣣मि꣡भिः꣢ । य꣣तः꣢ । अ꣣भि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नि । धा꣣वति ॥१२८३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा का कर्तव्य वर्णित है।
(वृषा) बलवान् और (दशभिः जामिभिः) दस अंगुलियों से अर्थात् अंगुलियों के समान आपस में सम्बद्ध दस यम-नियमों से (यतः) नियन्त्रित हुआ (एषः) यह सोम जीवात्मा (द्रोणानि अभि) सांसारिक भोगों के प्रति (धावति) दौड़े ॥४॥
सांसारिक भोगों में अति आसक्ति उचित नहीं है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मनः कर्तव्यमाह।
(वृषा) बलवान्, (दशभिः जामिभिः) दशभिः अङ्गुलिभिः, अङ्गुलिवत् परस्परसम्बद्धैः दशभिः यमनियमैः (यतः)नियन्त्रितः (एषः) अयं सोमः जीवात्मा (द्रोणानि अभि) सांसारिकान् भोगान् प्रति (धावति) धावेत् [विध्यर्थे लेट्] ॥४॥
सांसारिकेषु भोगेष्वत्यासक्तिर्नोचिता ॥४॥